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मेज़ के उपर सब कुछ शांत है , ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

मेज़ के उपर सब कुछ शांत है

*************************

बड़ी सी मेज , साफ मेजपोश

ताज़े फूलों के गुलदस्तों सजी

करीने से लगी कुर्सियाँ

 

अदब से बैठे हुये अदब की चर्चा मे मशगूल

सभ्यता और संस्कृति की जीती जागती मूर्तियाँ

सामाजिक बुराइयों से लड़ते जो कभी न थके

सामाजिक उन्नति के नये-नये मानक गढ़ते 

सब कुछ कितन भला लग रहा है , मेज के ऊपर

सामान्यतया क़रीब से देखने में

लेकिन ,

जो दूर बैठा है उस मेज से

देख सकता है ,सब कुछ सही सही 

वो देख पाता है

मेज के नीचे की सच्चाइयाँ भी, क्योंकि

सही अवलोकन के लिये निश्चित दूरी भी ज़रूरी  है

वो देख सकता है ,एक दूसरे से अड़ते – भिड़ते पैर

कुर्सियों से गिराने के होते प्रयास

पैरों के नाखूनों से दूसरे के खरोंचे जाते पैर

पिंडलियों तक लहूलुहान कई पाँव

और निर्विकार से गंभीर चर्चा मे गुम हुए कुछ चेहरे

क्योंकि मर्यादा ज़रूरी है  

जानते सब हैं , सब कुछ हैं

पर कहता कोई नहीं ,

ऊपर सब कुछ मर्यादित है

 

शायद उत्कट अभिलाषायें आवाज़ें छीन लेतीं हैं , केवल आवाजें ! बस !

इसीलिये मेज़ के ऊपर सब कुछ शांत है

अच्छा है सब कुछ

लेकिन कब तक ?

******************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 9:32pm

आदरणीया सविता जी , आपका बहुत शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 9:31pm

आदरणीया मीना जी , रचना की सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 9:31pm

आदरणीय जितेन्द्र भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका आभारी हूँ ।

Comment by savitamishra on August 4, 2014 at 12:23pm

बहुत सुन्दर ................सादर बधाई_/\_

Comment by Meena Pathak on August 4, 2014 at 11:45am

शायद उत्कट अभिलायें आवाज़ें छीन लेतीं हैं , केवल आवाजें बस

इसीलिये मेज़ के उपर सब कुछ शांत है

अच्छा है सब कुछ

लेकिन कब तक ?????????

बहुत सुन्दर और सार्थक .................सादर बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 4, 2014 at 9:55am

कहाँ किसे कोई फिक्र है सत्य की, हाँ! जानते सब है. बहुत ही बढ़िया रचना आदरणीय गिरिराज जी, आपको बहुत -२ बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 7:28am

आ. विजय भाई , आपने मेरे दिल की बात कह दी , मेरा भी यही मानना है कि अगर कुछ कर सकते हैं तो साहित्य सेवी ही सुधार कर सकते हैं ।  रचना के अनुमोदन के लिये आपका दिली शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 7:25am

आदरणीय राम शिरोमणि भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 3, 2014 at 8:38pm
कविता अच्छी है , बधाई. पर आपका दृष्टिकोण बहुत दयालु , बहुत उदार है . आज जिस सूचना के युग में हम हैं उसमें बस सूचना चाहिए , प्रसार का माध्यम चाहिए , सही गलत से किसी को मतलब नहीं , कार्यक्रम प्रायोजित है , किसी से कोई मतलब नहीं , सच जानने की न इच्छा है , न प्रयास और न स्वीकारने का साहस न बोलने का दुःसाहस . दिशाहीन से हम , दिशाहीनों से हांके जाते हम , दिशाहीनों में भटके हुए हम .
फिर भी पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि साहित्य सेवा में लगे लोग ही कुछ कर सकते हैं , बाकी तो सब कारोबारी हैं , कारोबार करते हैं .
Comment by ram shiromani pathak on August 3, 2014 at 8:08pm

सुन्दर प्रस्तुति  आदरणीय। ।   हार्दिक बधाई आपको। ।   सादर 

कृपया ध्यान दे...

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