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“ अरे! बेटा..तैयार हो रहे हो. अगर बाहर तक  जा रहे हो तो अपने पिता कि दवाई ले आओ, कल कि ख़त्म हुई है”

“ अरे! यार मम्मी!!   मैं जब भी बाहर निकलता हूँ , आप टोंक देती हो. आपको  पता है न, हमारी पूरी एन.जी.ओ. की टीम पिछले हफ्ते से गरीब और असहाय लोगों कि सहायता के लिए गाँव-गाँव घूम रही है. शायद ! आप जानती  नही हो, अभी  मेरी  सबसे बढ़िया प्रोग्रेस  है पूरी टीम में ”

 

        

जितेन्द्र ‘गीत’

 (मौलिक व् अप्रकाशित)    

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 27, 2014 at 1:57am

आपकी शुभकामनायें व् बधाई , सर आँखों पर आदरणीय सौरभ जी. आपकी उपस्थिति से मनोबल दोगुना हुआ आपका ह्रदय से आभारी हूँ. स्नेह व् मार्गदर्शन बनाये रखियेगा

सादर!

Comment by kalpna mishra bajpai on July 27, 2014 at 1:36am

सच कहा है आप ने भाई, समाज सेवा घर से शुरू हो तो ज्यादा फलदाई हो सकती । बहुत बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 26, 2014 at 8:57pm
आदरणीय जीतेन्द्र जी , कहानी अच्छी है . अनिवार्य निजता पर व्यवसाइक सामाजिकता भारी पड़ जाती है , क्या करें . बधाई .
Comment by Priyanka singh on July 26, 2014 at 8:19pm

अच्छी लगी आपकी लघु कथा .... शुभकामनायें आपको 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 26, 2014 at 5:33pm

जीतू भाई

लघु कथा के प्रतिमान में ढली सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति i


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 26, 2014 at 3:47pm

एक् कथाकार के तौर पर आपकी निगाहें सजग हैं. कथ्य के प्रस्तुतीकरण में चुटिलापन ध्यान खींचता है. 

इस लघुकथा के प्रस्तुत होने पर शुभकामनाएँ तथा बधाइयाँ. ..

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