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दिनांक 22 जून की शाम इलाहाबाद के अदबघर, करेली में अंजुमन के सौजन्य से आयोजित तरही-मुशायरे में मेरी प्रस्तुति तथा कुछ अन्य शेर --
2122   2122   212 

यदि सुशासित देश-सूबा चाहिये..
शाह क्या जल्लाद होना चाहिये !?

फ़ुरसतों का दौर कैसा चाहिये.. ?
वक्त अलसाया.. उनींदा चाहिये !

रात है, आवारग़ी है..   खूब है.. 
कब कहा हमने.. ठिकाना चाहिये ?

इश्क़ है गर डूबना.. तो पास जा..
डूबने वालों को दरया चाहिये

नाम इक उड़ता हुआ फिर आ गया  
होंठ पर फूलों का गमला चाहिये.. !!

वक़्त क्या.. कर दूँ निछावर ज़िन्दग़ी
पर तुम्हें तो सिर्फ़ कंधा चाहिये !

धूप से हलकान सूरज भी दिखा

अब उसे लहजा बदलना चाहिये ॥

हाँ, गगन के तो घनेरे रंग हैं
किन्तु चिड़िया को बसेरा चाहिये ॥

दुख मेरा है एक बच्चे की तरह
हर समय ’सौरभ’ खिलौना चाहिये ॥
*********************

--सौरभ

*********************

(मौलिक और अप्रकाशित)

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 26, 2014 at 11:12am

मतला किसी भी ग़ज़ल का चेहरा-मोहरा हुआ करता है, आपकी ग़ज़ल का मतला अगले अशआर की खूबसूरती का पैगाम दे रहा है. सोने पर सुहागा ये की बाद वाले सभी अश'आर हर मयार पर खरे उतर  रहे हैं. इस लाजवाब ग़ज़ल पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें आ० सौरभ भाई जी.

Comment by vijay nikore on June 26, 2014 at 8:05am

ऐसा कम ही होता है कि कोई रचना शूरू से अंत तक पाठक को बाँधे रहे, परन्तु आपकी गज़ल में यह खूबी है।

हार्दिक बधाई, आदरणीय सौरभ भाई।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 26, 2014 at 12:03am

आदरणीया अन्नपूर्णाजी, आपको जो दो शेर पसंद आये हैं वे वस्तुतः कुछ कहते हुए शेर हैं और इसी करण मुझे भी प्रिय हैं. ग़ज़ल को अनुमोदित करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 26, 2014 at 12:03am

आदरणीया महेश्वरीजी, प्रयास के क्रम आप जो कुछ आप देख रही हैं, वह सारा कुछ इस मंच के विद्वानों और सहयोगियों की ही देन है. आपको मेरा प्रयास रुचिकर लगा, यह मेरे लिए भी आत्मीय संतोष की बात है.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 26, 2014 at 12:03am

भाई जवाहरजी, आपको प्रयास अर्थवान लगा इसके लिए हार्दिक धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 26, 2014 at 12:02am

नादिर भाई, आपकी सदाशयता को रूप में स्वीकार करूँ. यह आपका बड़प्पन है, भाईजी.
हार्दिक धन्यवाद

Comment by annapurna bajpai on June 25, 2014 at 6:32pm


धूप से हलकान सूरज भी दिखा
 
अब उसे लहजा बदलना चाहिये ॥

हाँ, गगन के तो घनेरे रंग हैं 
किन्तु चिड़िया को बसेरा चाहिये ॥...............................सुंदर शेर , बहुत बहुत बधाई आपको इस सुंदर गजल के लिए । 

Comment by Maheshwari Kaneri on June 25, 2014 at 1:58pm

आदरणीय सौरभ जी,आपकी ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में एक से बढ़कर एक है..

दुख मेरा है एक बच्चे की तरह 
हर समय ’सौरभ’ खिलौना चाहिये ॥

लाजवाब शायरी..बहुत सुंदर ,बधाई सौरभजी |

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 25, 2014 at 12:12pm

आदरणीय सौरभ सर जी, सादर अभिवादन!

प्रारम्भ से अंत तक एक एक शब्द, भाव सीधे अंतस में उतरते हुए ....इतनी धमाकेदार! शुरुआत किसी न किसी को तो करनी ही पड़ेगी  

और 

दुख मेरा है एक बच्चे की तरह 
हर समय ’सौरभ’ खिलौना चाहिये ॥ अनगिनत अर्थ समेटे हुए..सादर!

Comment by नादिर ख़ान on June 24, 2014 at 8:33pm

आदरणीय सौरभ सर पहले शेर से आखिरी शेर तक लाजवाब शायरी ...

हम तो  आपको पढ़ पढ़ कर सीखने की कोशिश करते हैं  ।

(नेट खराब था आज ही ठीक हुआ है)

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