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जोड़ना आता नहीं पर बाँटनें की फितरतें -ग़ज़ल

2122    2122    2122    212
******************************
पाँव  छूना  रीत  रश्में  मानता  अब  कौन  है
सर पे आशीषों  की छतरी तानता  अब कौन है
***
जोड़ना  आता  नहीं पर ,  बाँटनें   की  फितरतें
धर्म हो  या  हो सियासत  जानता अब  कौन है
***
रो रहे क्यों वाक्य को तुम  मानने की जिद लिए
शब्द  भर  बातें  सयानों  मानता  अब  कौन है
***
सिर्फ दौलत  को यहाँ  पर रोज  भगदड़ है मची
प्यार की  खातिर  मनों को  छानता अब कौन है
***
सबको मंजिल की ‘मुसाफिर’ है तलब तो खूब पर
पाक  राहें   भी   रहें   ये   ठानता   अब  कौन  है

***
(रचना- 25 मई 2012)

मौलिक और अप्रकाशित

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

Views: 667

Comment

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Comment by annapurna bajpai on June 25, 2014 at 6:12pm

बहुत सुंदर गजल , बधाई आपको । 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 25, 2014 at 12:19pm

सुन्दर सामयिक रचना पर सादर बधाई 

जोड़ना  आता  नहीं पर ,  बाँटनें   की  फितरतें
धर्म हो  या  हो सियासत  जानता अब  कौन है 


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Comment by गिरिराज भंडारी on June 24, 2014 at 5:10pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , हर शे र समाज की एक एक कडवी सचाई बयान कर रहे हैं , बहुत सुन्दर भाई लक्ष्मण जी , आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 24, 2014 at 9:37am

बहुत सुंदर सीख देती गजल, आजकल हर तरफ बस यही है.

जोड़ना  आता  नहीं पर ,  बाँटनें   की  फितरतें
धर्म हो  या  हो सियासत  जानता अब  कौन है.............दिली बधाइयाँ आपको


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Comment by शिज्जु "शकूर" on June 24, 2014 at 8:11am

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय लक्ष्मण जी बधाई

Comment by coontee mukerji on June 24, 2014 at 1:16am

बहुत बहुत सुंदर गज़ल के लिये हार्दिक बधाई

Comment by वेदिका on June 24, 2014 at 12:39am
उम्दा लेखनी से उद्गामित गज़ल के लिए दिली दाद!

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Comment by rajesh kumari on June 23, 2014 at 8:58pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी लक्ष्मण धामी भैय्या ,दिली दाद कबूलें .

Comment by Abhinav Arun on June 23, 2014 at 7:18pm
सुन्दर सार्थक संदेशपरक ग़ज़ल श्री धामी जी हार्दिक बधाई !!
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 23, 2014 at 7:01pm

धामी जी

लाजवाब  i  बहुत उम्दा लिखते है आप मित्र i

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