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अपनों नें जो मुझपर फेंका पत्थर है 

वो गैरों के फूलों से तो बेहतर है

 

दुनिया समझी थी वो कोई शायर है

जिसका दामन मेरे अश्कों से तर है

 

ऐ खुशियों तुम सावन बनकर मत आना

पिछली बारिश ने तोडा मेरा घर है

 

भूखा मंदिर जायेगा क्या पायेगा

रोटी बन पाता क्या संगेमरमर है

 

धरती सौ हिस्सों में बाँटो होगा क्या

पक्षी का तो आना जाना उड़कर है

 

चूल्हा जलने से रोको इस बस्ती में

इस बस्ती में आंधी आने का डर है

 

दुःख रेतीले पर्वत सा ढह जायेगा

अपना दिल भी तो तूफानों का घर है

 

भुवन निस्तेज

(मौलिक व अप्रकाशित) 

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Comment by coontee mukerji on March 23, 2014 at 12:05pm

दुःख रेतीले पर्वत है ढह जायेंगे

जीने वालों के तूफ़ानी तेवर है.............बहुत खूब.

Comment by बृजेश नीरज on March 23, 2014 at 9:56am

अच्छा प्रयास है! आपको हार्दिक बधाई!

ग़ज़ल की बहर का भी जिक्र किया होता तो मुझ जैसे छात्रों को भी समझने-सीखने में आसानी होती.

Comment by annapurna bajpai on March 23, 2014 at 12:32am

सुंदर गजल , बहुत बधाई आपको । 

Comment by shashi purwar on March 22, 2014 at 10:01pm

हार्दिक बधाई आ. भुवन जी  , सुन्दर गज़ल कही है

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 22, 2014 at 8:42am

चूल्हा जलने से रोको इस बस्ती में

इस बस्ती में आंधी आने का डर है............बहुत बहुत बधाई आदरणीय भुवन जी

Comment by Omprakash Kshatriya on March 22, 2014 at 7:07am

चूल्हा जलने से रोको इस बस्ती में
इस बस्ती में आंधी आने का डर है,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, शानदार बात कही है .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 20, 2014 at 2:37pm

आ. भुवन भाई , सुन्दर गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ॥

Comment by Shyam Narain Verma on March 20, 2014 at 12:31pm
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई 

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