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तोड़ नीड़ की परिधि

सारी वर्जनाएं

भुला  नीति रीति

लांघ कर सीमाएं

छोड़ संयम की कतार

दे परवाज़ को विस्तार

वशीकरण में बंधा

लिए एक अनूठी चाह

कर बैठा गुनाह

लिया परीरू चांदनी का चुम्बन

जला बैठा अपने पर

उसकी शीतल पावक चिंगारी से

गिरा औंधें मुहँ

नीचे नागफनी ने डसा

खो दिया परित्राण

ना धरा का रहा

ना गगन का

बन बैठा त्रिशंकु

वो उन्मत्त परिंदा

**************

 (मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 13, 2014 at 10:28am

आ० लक्ष्मण प्रसाद जी, आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया हेतु हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ.  

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 13, 2014 at 10:14am

बन बैठा त्रिशंकु

वो उन्मत्त परिंदा - वाह ! बहुत सुन्दर/अनुपम रचना के लिए हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 13, 2014 at 8:57am

आ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आपने रचना के मर्म को समझने की कोशिश की अच्छा लगा ,आपने जिस बात को इंगित किया शायद आपने ध्यान नहीं दिया की तोड़ नीड़ की परिधि के बाद अगला वाक्य ही इस बात की पुष्टि कर रहा है की परिंदा किस आशय से नीड़ की परिधि तोड़ रहा है पहले मान्यताएं लिख रही थी कितु वो सपाट हो जाती और आगे के वाक्यों में रिपीटेशन हो जाता ,अंतिम बात नागफनी ने डसा ,बेशक नागफनी जमान पर होती है किन्तु उसके काँटे शीर्ष पर भी होते हैं जहाँ परिंदा फंस सकता है ,खैर ये तो परिंदे की बात हुई ,कितु परिंदे का बिम्ब लेकर इशारा किस और है हर कवी ह्रदय पहचान/समझ ही लेगा त्रिशंकु अर्थात घर का न घाट का  .....यही भाव हैं दुबारा पढेंगे तो शायद रचना और स्पष्ट होगी.  

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2014 at 9:21pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी,

कविता अच्छी हो सकती थी मगर कुछ तथ्यगत त्रुटियाँ हैं जैसे

(यहाँ मैं ये मानकर चल रहा हूँ कि ये त्रुटियाँ जानबूझकर कविता को विशेष अर्थ देने के लिए नहीं की गई हैं)

तोड़ नीड़ की परिधि - नीड़ की परिधि तो ज़िंदा रहने के लिए ही तोड़नी पड़ जाती है, परिंदा चुगने नहीं जाएगा तो ज़िंदा कैसे रहेगा

सुझाव - वायुमंडल की परिधि कर सकती हैं

नागफनी जमीन पर होती है मतलब परिंदा जमीन पर गिर गया -  तो त्रिशंकु कैसे हुआ?

ये तो आपको ही ठीक करना होगा 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 12, 2014 at 8:43pm

नीरज कुमार नीर जी रचना आपको पसंद आई मेरा लेखन कर्म सफल हुआ हार्दिक आभार आपका. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 12, 2014 at 8:41pm

आदरणीय गिरिराज जी, आपको रचना ने प्रभावित किया मेरा लिखना सार्थक हुआ हृदय तल से आभारी हूँ. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 12, 2014 at 8:40pm

आ० ओमप्रकाश जी, रचना की सराहना के लिए बहुत- बहुत आभार.  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 12, 2014 at 8:39pm

आदरणीय विजय मिश्र  जी, आपको रचना पसंद आई  --"तुमने चिंगारी क्या दिखलायी ,मैंने अपना आशियाना ही फूँक डाला |"..हाँ सही कहा आपने. जो अपनी मर्यादाओं के दायरे तोड़ते हैं उनका हश्र यही होता है बस इसी भाव को पिरोया है शब्दों में.आपका हार्दिक आभार.  

Comment by Neeraj Neer on March 12, 2014 at 8:29pm

बहुत ही सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 12, 2014 at 7:44pm

आदरणीया राजेश जी , सुन्दर प्रवाह मयी कविता के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ आदरणीय विजय मिश्र भाई जी से पूर्ण रूप से सहमत हूँ , पुनः बधाइयाँ ॥

कृपया ध्यान दे...

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