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वो पलकों की चिलमन …

वो पलकों की चिलमन …

वो पलकों की  चिलमन  उठा के गिराना
वो आँचल  के  कोने  को  मुंह में दबाना

ज़हन में  है  ज़िंदा  वो मंज़र मिलन का
भला   कैसे   भूलूं  मैं  उसका   मनाना

मुहब्बत की   रूदाद क्यूँ अश्कों में भीगी
क्यूँ होता है मुहब्बत का दुश्मन ज़माना


गुजरती है करवट में तमाम शब हमारी
सलवटों में सिसकता है दिल का फ़साना

रंज होता है क्या ये न जाने थे अब तक
हिज्र में हम तेरी अश्कों को भूले छुपाना

अपनी ख़ल्वत से रहूँ क्यों भला मैं ख़फ़ा
आ गया रास याद बनके उनका  सताना


सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Meena Pathak on February 5, 2014 at 2:27pm

बहुत सुन्दर गज़ल ... बधाई आदरणीय सुशील जी | सादर 

Comment by Sushil Sarna on February 5, 2014 at 1:47pm

आदरणीय जितेन्द्र 'गीत' जी ग़ज़ल पर आपकी स्नेहिल  प्रशंसा का हार्दिक आभार 

Comment by Sushil Sarna on February 5, 2014 at 1:46pm

आदरणीय कुन्ती मुख़र्जी जी ग़ज़ल पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 4, 2014 at 11:02pm

गुजराती है करवट में तमाम शब हमारी
सलवटों में सिसकता है दिल का फ़साना..........बहुत खूब

हार्दिक बधाई आदरणीय शुशील जी

Comment by coontee mukerji on February 4, 2014 at 9:52pm

सुंदर गज़ल के लिये हार्दिक बधाई.सादर

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