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पाँच दोहे : आज के मन-भाव // --सौरभ

मन के सुख-दुख, पीर भी, कैसे पायें भाव
टिप-टिप अक्षर आज के, टेक्स्ट हुए बर्ताव       

चिट्ठी से तब भाव मन, होता था अभिव्यक्त
दिल के आँसू वाक्य थे, शब्द-शब्द थे रक्त

वह भी अद्भुत दौर था, यह भी अद्भुत दौर
अब’ कार्डों से भाव सब, ’तब’ अमराई बौर

हृदय धड़कता आज भी, टेरे भाव महीन  
पर संप्रेषण हो गया, ’यू नो.. आई मीन..’

चला गया जो दौर वो, रह-रह करता हॉण्ट ..
कागज मोनीटर हुए, अक्षर सारे फ़ॉण्ट ..

***************

-सौरभ

***************

(मौलिक व अप्रकशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 1, 2014 at 1:24am

आपने इन छंदों के होने का मूल ही साझा कर दिया आदरणीया प्राचीजी. हाँ, यह आवश्य है कि कथ्य प्रस्तुतीकरण के लिहाज़ से मैंने भी एक प्रयोग ही किया है. आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद\


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 1, 2014 at 1:24am

हार्दिक धन्यवाद आदरणीया अन्नपूर्णाजी

Comment by नादिर ख़ान on January 31, 2014 at 11:39pm

आदरणीय सौरभ सर, नये रूप मे कहे  गए उत्तम दोहे .....

हमेशा की तरह लाजवाब .....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 31, 2014 at 11:02pm

वाह बहुत बढ़िया आदरणीय सौरभ सर ये दो पीढ़ी का तुलनात्मक अध्ययन आपने बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 31, 2014 at 9:49pm

सम्प्रेषण की तकनीकों का दौर जिस तेज़ी से बदल गया.....कि बस देखते ही देखते यादें रह गयी.. अपनों की खुशबू संजोती चिठ्ठियाँ...

हाथों से बने कार्ड और उनमें लिखा गया ओरिजनल कंटेंट, आज के कॉपी पेस्ट फॉरवर्ड शेयर में वो बात कहाँ? तब तो हाथों की लिखावट भी बहुत कुछ बयान कर देती थी! और आज चरण-स्पर्श भी ब्लू-टुथ से हो जाता है  ..हाहाहा :)

बहुत कुछ समेटे इन सहज brilliant दोहों के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ जी

सादर

सादर.

Comment by annapurna bajpai on January 31, 2014 at 9:24pm

आदरणीय सौरभ जी क्या दोहे रचे  है , वाह !! , बहुत बधाई आपको ।  मै तो दोहे लिखना ही सीख रही हूँ आपका अनुमोदन तो सर्व प्रथम मुझे ही चाहिए । सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 31, 2014 at 9:05pm

//ये जाने वाला तो है नहीं.....इसे गले लगाकर चलना ही श्रेयस्कर है. //

आदरणीया कुन्तीजी,  ये छंद भी किसी दौर की श्रेष्ठता कहाँ बता रहे हैं,  या आज को नकार रहे हैं ? अलबत्ता, ये तो वह भी अद्भुत दौर था, यह भी अद्भुत दौर  कह कर स्वीकार ही कर रहे हैं. और, हर दौर का लिहाज बता रहे हैं.

हाँ, संप्रेषणीयता के मुद्दे पर अवश्य तनिक क्षोभ है और एक छंद को कहना ही पड़ता है - पर संप्रेषण हो गया, ’यू नो.. आई मीन..’.. :-))))

इन छंदों तक पहुँचने और समय देने के लिए सादर धन्यवाद.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 31, 2014 at 8:58pm

सादर धन्यवाद आदरणीया सरिता जी,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 31, 2014 at 8:58pm

आदरणीया राजेश कुमारीजी, इस प्रस्तुति को महसूस करने और अनुमोदित करने के लिए सादर धन्यवाद.

Comment by coontee mukerji on January 31, 2014 at 7:55pm

 वो भी एक दौर था.....ये भी एक दौर है......लेकिन सौरभ जी ये जाने वाला तो है नहीं.....इसे गले लगाकर चलना ही श्रेयस्कर है. सादर.

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