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निर्ममता से जो पड़ी ,खूब समय की  बेंत। 
नदिया पूरी बह गई ,शेष  रह  गई  रेत  !!१ 
 
शहर हमारी देह सा ,रक्त नदी की  धार। 
नस-नस में काहे करे, नाला समझ विचार।।२ 
 
नदी जन्म देती शहर ,शहर बन रहे शाप। 
मैली करते कोख को ,मिलजुल कर हम-आप !!३ 
 
नदी  दीन  सी हो गई , बजी ईंट से ईंट। 
काँटों से तट पर उगे ,घावनुमा  कंक्रीट।।४ 
 
आसमान जो फट गया ,दुष्कर भागम-भाग !
झुलस गए तट साथ के ,लगी नदी में आग।। ५ 
 
वानर से ही नर बना , सदा कुलाटी  खाय !
अपनी हो या गैर की , उम्र नज़र ना आय।।६ 
 
करती कितना नारियाँ ,जप तप और उपवास !
फिर भी नन्ही बच्चियां ,भोग  रही  संत्रास।।७ 
 
काला - रंग समाज का , चिंता की है बात। 
बद से बदतर हो रहे , जीने  के  हालात।।८ 
 
पायल तुम झंकार पर , इतना मत इतराव। 
घुंघरू खुद बजते नहीं ,अगर हिले ना  पाँव।।९ 
 
ना मानूँ मै धर्म को ,मानूँ  ना भगवान् !
मै तो इतना जानता ,समय बड़ा बलवान।।१० 
----------------------------------------------------------------
अविनाश बागडे...मौलिक/अप्रकाशित 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 4, 2014 at 11:02am

भावपूर्ण दोहे रचे है भाई अविनाश जी, हार्दिक बधाई एवं नव वर्ष की मंगल कामनाए स्वीकारे |

कुछ दोहों में लयात्मकता की द्रष्टि से और सुधार हो सकता है जैसे -

नदिया पूरी बह गई ,शेष  रह  गई  रेत  ----  शेष रही अब रेत 

Comment by vandana on January 3, 2014 at 5:55am

बेहतरीन एक से बढ़कर एक दोहे आदरणीय अविनाश जी 

Comment by MAHIMA SHREE on January 2, 2014 at 9:08pm
करती कितना नारियाँ ,जप तप और उपवास !
फिर भी नन्ही बच्चियां ,भोग  रही  संत्रास।।
 
ना मानूँ मै धर्म को ,मानूँ  ना भगवान् !
मै तो इतना जानता ,समय बड़ा बलवान।।... वाह बहुत ही सारगर्भित दोहें आदरणीय अविनाश सर हार्दिक बधाई आपको सादर  
 
 

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 2, 2014 at 8:57pm

आदरणीय अविनाश भाई , सुन्दर शिक्षा प्रद दोहों के लिये बधाइयाँ ॥

Comment by Shyam Narain Verma on January 2, 2014 at 5:50pm
आपकी इस सुंदर प्रस्तुति पर सादर बधाई...
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 2, 2014 at 5:01pm

आदरणीय अविनाश  भाई , नया वर्ष आपके व पूरे परिवार के लिए मंगलदायी  हो॥  दोहे में  आपने देश समाज और सरकार को अच्छी सीख दी है, इस सामयिक रचना पर हार्दिक बधाई ॥... सप्रेम राधे-राधे।

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