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ग़ज़ल : जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम

बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२

 

जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम

हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम

 

जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम

करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम

 

कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला

दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम

 

यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा

तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम

 

उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा

क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 752

Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:19pm

 Neeraj Kumar 'Neer' जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:18pm

Abhinav Arun जी, आपके इस स्नेह के लिए तह-ए-दिल से शुक्रगुजार हूँ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:17pm

विजय मिश्र जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:15pm

डॉ. अनुराग सैनी जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:15pm

Dr Ashutosh Mishra जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:14pm

Meena Pathak जी, बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:13pm

आशीष नैथानी 'सलिल' जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:12pm

 डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, बहुत बहुत धन्यवाद जनाब। आगे भी कोशिश जारी रहेगी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 17, 2013 at 2:55pm

उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा

क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी, मेरी कलम---बहुत शानदार शेर बहुत समझदार है आपकी कलम!! बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर  

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 17, 2013 at 1:28pm

आदरणीय धर्मेन्द्र जी वाह बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई हो आपको

कृपया ध्यान दे...

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