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बुत शहर में बोलते इंसान भी तो हैं!//गज़ल//कल्पना रामानी

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ज़िन्दगी जीने के कुछ, सामान भी तो हैं!

बुत शहर में बोलते, इंसान भी तो हैं!

 

भीड़ से माना कि घर, सिकुड़े बने पिंजड़े,

साथ में फैले हुए, उद्यान भी तो हैं!

 

और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़,

मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।

 

गाँव ही आकर अकारण हैं मचाते भीड़

यूँ शहर में बढ़ गए व्यवधान भी तो हैं!

 

क्यों नहीं हक माँगते, शासन से आगे बढ़?

जानकर ये बन रहे, नादान भी तो हैं!

 

हल चलाते हाथ कोमल हो नहीं सकते,

श्रम से होते रास्ते, आसान भी तो हैं!

 

माँ-पिता क्यों दोष देते, पुत्र को ही आज?

मन में उनके कुछ दबे, अरमान भी तो हैं।

 

दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?

ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं!  

 

मौलिक व अप्रकाशित

कल्पना रामानी

 

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Comment by गिरिराज भंडारी on October 9, 2013 at 2:15pm

आदरणीय कल्पना जी , जवाब नही आपकी ग़ज़ल का !!!! बहुत सुन्दर !!!

और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़,

मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।

दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?

ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं!  ------------- दोनो शेरों के लिये अलग से दाद कुबूल करें !!!!

Comment by कवि - राज बुन्दॆली on October 9, 2013 at 12:30pm

एक शानदार गज़ल के लिये बधाई आपको,,,,,,,,,,,

Comment by coontee mukerji on October 9, 2013 at 12:18pm

दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?

ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं!  .........बहुत खूब.

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