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कविता – प्रेम के स्वप्न ! (अभिनव अरुण)

कविता – प्रेम के स्वप्न


हां , बदल गयी हैं सड़कें मेरे शहर की

मेरा महाविद्यालय भी नहीं रहा उस रूप में

पाठ्य पुस्तकें , पाठ्यक्रम जीवन के

बदल गए हैं सब के सब

 

कई कई बरस कई कई कोस चलकर

जाने क्यों ठहरा हुआ हूँ मैं

आज भी अपने पुराने शहर  

शहर की पुरानी सड़कों पर

उन मोड़ों के छोर पर

बस अड्डे और चाय की दुकानों पर भी

जहां देख पाता था मैं तुम्हारी एक झलक

 

हाँ , मैंने तुम्हें लिखे थे प्रेम पत्र भी

लाल नीली हरी सियाहियों वाले प्रेम पत्र

कई पंक्तियों को रेखांकित किया था

कुछ शायरी भी टांकी थी उनमें

अपने लिखे पत्रों को पढ़कर आहें भरता मुस्कुराता भी था मैं

पर कभी तुम तक पहुँच नहीं सके वे पत्र

और जानता हूँ नहीं पहुंची कभी भी तुम तक मेरी प्रेम की अभिव्यक्ति

 

इस प्रकार असफल ही रहा मैं प्रेम की उस राह पर

जिस पर चलकर कवि रच जाते हैं प्रेम की अमर कवितायेँ

 

और मैं धीरे धीरे दूर होता गया शहर से

शहर के कोलाहल से

अपने भीतर बसा लिए मैंने

सर्वहारों के कई कई गाँव

जहां आज भी बनते हैं घोसले तिनका तिनका जोड़कर

आज भी मिलता है अनाज के बदले सामान पंसारी की दुकानों में  

पूरी मजूरी के लिए झगड़ते है मजदूर और सामंत

जहां आज भी जन गण अनभिज्ञ है मुग़लों और अंग्रेजों के होने या न होने से

 

जानते हो मेरे अंतर के गाँव में बारिश के लिए मानी जाती हैं मन्नतें

चढ़ाये जाते हैं डीहों के देव को पुए और पकवान

फसल अच्छी हुई तो आज भी निकाला जाता है अन्न का एक भाग

अंगऊं के रूप में

और मेरे गाँव में आज भी जारी है जारों से वर्ग संघर्ष

आज भी पढ़ी जाती है मार्क्स की थ्योरी छुप छुप कर

लगाए जाते हैं समानता की मांग के नारे

आज भी बेड़ियों में जकड़ा है मेरे अंतर का गाँव

और मेरे गाँव में नहीं देखता कोई

खुली या बंद आँखों भी प्रेम के स्वप्न 

                         - अभिनव अरुण 

                           {29082013}

                  * सर्वथा मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment by ram shiromani pathak on August 30, 2013 at 9:36pm

वाह आदरणीय बहुत ही सुन्दर //अपने तो मुझे गाँव की याद दिल दी //बहुत  सुन्दर  लगी  आपकी  रचना  मुझे  हार्दिक  बधाई  आपको //सादर  

Comment by annapurna bajpai on August 30, 2013 at 9:16pm

आदरणीय अरुण जी आत्म मंथन के भावों को बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत किया है, बहुत बधाई ।  

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 30, 2013 at 9:11pm

आ0 अभिनव अरून भाई जी, वाह! वाह! .....सत्य से प्रेरित सुन्दर आत्ममंथन, बाह्य आवरण और वे यादें]  जो झकझोरतीं हैं आज के कौतुक संसार में स्वार्थी मन को, अपनों से अनभिज्ञ रिश्तों एवं संस्कारों के इस गौरवांवित देश की राजनीति को । सब कुछ बिखर चुका है। हम अपनी पीढि़यों को क्या देना चाहते हैं..? अप्रतिम रचना। हृदयतल से बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें। सादर,

Comment by Abhinav Arun on August 30, 2013 at 9:06pm

आ. गिरिराज जी .कविता की इस भावपूर्ण समीक्षा के लिए हार्दिक आभार आदरणीय !! स्नेह मिलता रहे यही अभिलाषा है !!

Comment by Abhinav Arun on August 30, 2013 at 9:01pm

बहुत शुक्रिया आदरणीय श्री राजेश जी ,श्री रॅविकर जी श्री श्याम जी आपने मेरी रचना की सराहना कर इसका लिखना सार्थक किया बहुत आभार !!

Comment by राजेश 'मृदु' on August 30, 2013 at 4:04pm

बहुत ही बढि़या रचना है आदरणीय, यह गांव बहुत याद आता है

Comment by रविकर on August 30, 2013 at 1:59pm

बढ़िया कविता-
सुन्दर भाव प्रगटीकरण-

शुभकामनायें-आदरणीय-


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 30, 2013 at 12:23pm

बहुत शानदार रचना , वाह !! महान गीत कार नीरज जी की दो लाइने याद आ गई --

                                  पहले उन सब के लिये एक इमारत गढ़ लूँ

                                  फिर तेरी मांग सितारों से भरी जायेगी ,

आज तो तेरे बिना नीन्द नही आयेगी  !!                           बधाई !

Comment by Shyam Narain Verma on August 30, 2013 at 11:31am
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.
Comment by shubhra sharma on August 30, 2013 at 11:11am

आदरणीय अभिनव जी ,अपने जिवंत भावो को सुन्दर तरीके से सजाने के लिए आप बधाई के पात्र है , बहुत बहुत बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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