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नवगीत (राजेश कुमार झा)

इक औरत सी तन्‍हाई को

जब यादें कंधा देती हैं

दीर्घ श्‍वांस की

चंड मथानी

मथ जाती

देह-दलानों को

टूटे प्‍याले

रोज पूछते

कम-ज्‍यादा

मयखानों को

गलते हैं हिमखण्‍ड कई पर

धारा कहां निकलती है

नि:शब्‍द सुलगती

रात पसरती

उष्‍ण रोध दे

प्राणों को

कौन रिफूगर

टांक सकेगा

इन चिथड़े

अरमानों को

कैसे पाउं मंजिल ही जब

पल-पल जगह बदलती है

कीर्ण आस भी

चली रसातल

भुवन-भार दे

तानों को

पीत-पर्व के

तिरते बादल

करते चूर

निशानों को

होता मैं दाधीच अस्थियां

लेकिन सहज पिघलती हैं

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by राजेश 'मृदु' on July 11, 2013 at 4:18pm

आदरणीय सौरभ जी, आपके इंगितार्थ को समझने में मैं अक्षम रहा, कृपया थोड़ा समय देकर अनुगृहीत करें, सादर

Comment by राजेश 'मृदु' on July 11, 2013 at 4:17pm

आप सबका सादर आभार । आपकी अमूल्‍य प्रतिक्रियाएं मुझे हमेशा प्रोत्‍साहित करती रहेंगी, सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 11, 2013 at 3:23pm

आदरणीय राजेश झा जी,

आपका नवगीत जहाँ एक ओर साथ बहने का न्यौता देता दिख रहा है तो साथ बह रहे कई कारण हठात् रोक भी रहे हैं.

रचनाकर्म में आंचलिक भाषा के शब्दों का लालित्य मनोहारी होता है, इसे मैं खूब समझता हूँ. लेकिन प्रयुक्त शब्दों की अक्षरी में सायास परिवर्तन सहमा देता है कि कहीं यह उदाहरण और फिर एक परिपाटी न बन जाये.

सादर

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 11, 2013 at 1:18pm

वाह बहुत ही सुन्दर भाव से ओतप्रोत नवगीत आदरणीय राजेश भाई जी क्या कहने. हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on July 10, 2013 at 11:22pm

बढ़िया नवगीत रचा आदरणीय राजेश जी !
हार्दिक बधाइयाँ  !!
 

Comment by ajay sharma on July 10, 2013 at 11:08pm

नि:शब्‍द सुलगती

रात पसरती

उष्‍ण रोध दे

प्राणों को

कौन रिफूगर

टांक सकेगा

इन चिथड़े

अरमानों को

कैसे पाउं मंजिल ही जब

पल-पल जगह बदलती है    nih.shabdh ...... wah wah wah

Comment by वेदिका on July 10, 2013 at 10:07pm

बहुत ही मार्मिक और पीर भरा नवगीत,

हार्दिक बधाई लीजिये!!  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 10, 2013 at 9:53pm

नि:शब्‍द सुलगती

रात पसरती

उष्‍ण रोध दे

प्राणों को

कौन रिफूगर

टांक सकेगा

इन चिथड़े

अरमानों को

बहुत सुन्दर भाव व् बिम्ब संयोजन बहुत बढ़िया प्रस्तुति बधाई आपको राजेश झा जी 
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 10, 2013 at 8:18pm

आ0 राजेश भाई जी,

‘कीर्ण आस भी
चली रसातल
भुवन.भार दे
तानों को‘...बहुत खूब! सुन्दर अभिव्यक्ति। वास्तव में नारी की पीड़ा का अन्त रसातल से भी अतल तल में है, जिसे केवल नारी ही सहन कर सकती है। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by राजेश 'मृदु' on July 10, 2013 at 7:12pm

कल्‍पना दी, आपका आशीष मिला मैं धन्‍य हो गया । आपकी प्रेरणा से आगे बढ़ने का सतत प्रयास करता रहूंगा, सादर

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