For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

यह घर तूम्हारा है

यह घर तुम्हारा है
1
फूलों के हिंडोले में बैठ कर
घर आयी पिया की ,
तमाम खुशियों और सपनों को ,
झोली में भर कर .
दहलीज़ पर कदम रखते ही
मेरे श्रीचरणों की हुई पूजा
चूल्हे पर दूध उफ़न कर कहा –
‘’ बधाई हो ! लक्ष्मी का घर में आगमन हुआ है ‘’
सबने शुभ शकुन का स्वागत किया .
बड़े जनों ने कहा – ‘’ आज से यह घर तुम्हारा है .’’
कुछ दिनों बाद -
मेरी कल्पनाओं ने उड़ान भरनी चाही
सपनों ने अपने पंख फैलाये
तब –
उड़ने को मेरे पास आकाश न था
बहुत जल्द भ्रम से पर्दा हटा
कहने को जो घर मेरा था ,
वह मेरा था ही नहीं .

2
दुनिया को दिखाने के लिये.
मेरे पास सब कुछ था
पर मेरा कभी कुछ न था
एक शहर के बीच शोर गुल में
बाहर की जगमगाती रोशनी में
अंधेरे कमरे को किसने देखा ?

घर का मालिक
दिन के उजाले में
अपने आलीशान दफ़्तर में
रिवाल्विंग चेयर पर बैठे
बाँधता है बड़े बड़े मंसूबे
तब मेरे अंधेरे कमरे से
एक परछाई निकलती है .
एक आंगन ,
जो दो कदमों में खत्म हो जाती है .
पैरों तले नर्म घास – और
बेलिया की लताएँ, दोनों,
मेरे अपने से लगते हैं .
मैं एक बूटा छूकर
उससे कूछ पूछना चाहती हूँ
मुहल्ले की हज़ार आँखें मुझे घूरती हैं .
(तब) इंसानों की बस्ती में मुझे
अजनबीपन सा महसूस होता है .
3
मेरे आस-पास
आकाश में कुछ बादल के टुकड़े
और उड़ते पंछी,
बंदरों का झुण्ड ,
जो कोई नियम कानून नहीं जानते
पर ये गमलों के फूल ,
खिलना इनका धर्म नहीं मजबूरी है .
शाम को ,
आता है घर का मालिक
हाथ में विविध सामानों का बंडल लिये
‘’ लो ! सब कुछ तुम्हारा है. ‘’
पर मेरी रूचि की कुछ भी नहीं होती
न खाने की , न पहनने की .
रात में ,
अंधेरा कमरा,
जब रोशनी से जगमगाता है
दिन भर की कुरूपता उसमे छुप जाती है
वे ही कुछ पल होते हैं
जब मन खुशियों से भर जाता है
पर कब तक ?
सारा मुहल्ला जब सो जाता है
रोशनी गुल कर ,
बिस्तर पर लेटे नींद नहीं आती
आँखें खोल इधर उधर देखती हूँ
तब –
निकली हुई वह परछाईं छ्त पर
अजगर सा लटकता नज़र आता है .
4
अगले दिन की सुबह
मैं कहती हूँ –‘’ क्यों न हम
कमरों को नया रंग दे दें
कुछ नये पर्दे लगा दें ‘’
‘’ घर तुम्हारा है जैसा चाहो सजाओ ‘’
पर , हर काम में उसकी पूरी दखल होती है .
पेंटर आता है कुछ मटमैले रंग
दीवार पर पोत जाता है .
पुराने पर्दे धोबी धो देता है
परिवर्तन के नाम पर कुछ नये प्लास्टिक के फूल
गुलदानों में लगाकर मैं खुश हो जाती हूँ .

बरसात में
छ्त और दीवार सीलन से भर जाते हैं
मेरे सपनों की तरह टूट टूट कर
ऊपर से पपड़ी गिरती है .
नित्य महरी आती , मलबे उठाती ,
कुछ घर के कोने में छोड़ जाती है .
5
मैं दिन भर वास्तु की किताब पढ़ती
घर में त्रुटि कहाँ है
हर कमरे में ढ़ूँढ़ती रहती हूँ
पूरा नक्शा बनाकर कहती हूँ
‘’ इस घर में कुछ हेर फेर कर
नया फर्निचर लगा दें.
बड़े प्यार मगर दृढ़ता से वे कहते हैं-
‘’ कितनी भावनाएँ जुड़ी हैं इन पुरानी चीजों से ,
इनको बदलना अपने बड़ों का निरादर करना है .’’
बहुत कुछ सोच कर, समझकर ,
मैं कभी प्रतिवाद नहीं कर पाती हूँ .
6
उस दिन के बाद
शुरू होती है अनवरत एक जंग
अंधेरे कमरों से , डरावनी परछाइयों से,
बंद खिड़कियों से जो कभी खुलती नहीं.
अंधेरे बाथरूम से निकलते खौफ़नाक कीड़ों से
जो मेरे पूरे वजूद पर छा जाते हैं .
और मैं जगी रहती हूँ
“ तुम्हारे घर ” में.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)

Views: 770

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijayashree on June 30, 2013 at 9:04pm

 कहाँ है मेरा ठौर-ठिकाना....

शाम ढली तो मैंने जाना .....

कहाँ है वो घर -वो देहरी .....

जिसको मैंने अपना माना....

निःशब्द कर दिया आपकी इस रचना ने कुंती जी 

Comment by शुभांगना सिद्धि on June 30, 2013 at 8:24pm

‘’ इस घर में कुछ हेर फेर कर 
नया फर्निचर लगा दें.
बड़े प्यार मगर दृढ़ता से वे कहते हैं-
‘’ कितनी भावनाएँ जुड़ी हैं इन पुरानी चीजों से ,
इनको बदलना अपने बड़ों का निरादर करना है .’’

घर की औरत का स्थान कहाँ होगा ??

सुंदर 

Comment by coontee mukerji on June 30, 2013 at 4:15pm

डॉ.साहब जीवन में ऐसी कितनी सारी सच्चाइयों होती है जो सुनहरे पर्दे के पीछे चुपे होते हैं....पर क्या करें?यहीं कुछ शब्द है जो होनी को दबाए रखती है .....अगर सर्वे किया जाय तो देखेंगे कि नब्बे प्रतिशत महिलाएँ इस स्तिथि का शिकार है.इसमें आभिजात्य वर्ग से लेकर निम्न वर्ग की महिलाएँ हैं.वे इसलिये चुप रहती है ताकि घर की शांति भंग ने हो...अन्यथा क्या औरतें बगावत नहीं कर सकती?बेशक कर सकती हैं.मगर..?? ????इतने सारे प्रश्न हैं कि क्या कहें.

Comment by Dr Babban Jee on June 30, 2013 at 12:18pm

शब्द नहीं है मेरे पास जो आपकी इस दिल को स्पर्शा करनेवाली रचना के बारे में कुछ कहूँ ! आपके ही शब्दो में- कहने को जो घर मेरा था , वो मेरा था ही नहीं / बिल्कुल सच कहा आपने /   ह्मारे भारतीय समाज में एक औरत का अपना कुछ भी नहीं होता , जो भी होता है वो एक दिखावा सा होता है , यही आख़िरी सचाई है / मैने भी इसे बेहद गहराई से महसूस किया है/ बहुत-बहुत साधुवाद इस बेहद सुंदर कृति के लिए/ 

Comment by Shyam Narain Verma on June 29, 2013 at 4:43pm

बहुत ही सुंदर व मर्मस्पर्शी रचना..........................

Comment by वेदिका on June 29, 2013 at 12:57am

सही कहा आपने आदरणीया कुंती जी! 

जब जन्म लिया तब ही घर के लोग कहते की लडकी पराया धन है, और जब विवाह करके इस घर आती है तो कहते है  दुसरे के घर से आई है। कभी अपना ही नही पाते  कोई लोग उसको, कोई भी चाहे …. खैर लम्बी लिस्ट है पराये लोगो की… !!    

Comment by coontee mukerji on June 28, 2013 at 7:31pm

सुधि जनो! आप सभी को रचनाओं में जो सच्चाई दिख रही है इसमें कल्पना लेशमात्र भी नहीं है इसमें बहुत सारी नारिओं की पीड़ा समाहित है........एक औरत के लिये कितना मुश्किल होता है एक घर बसाना...एक बार शादी हो जाने के बाद वह न इधर की होती है उधर की....जिसने नहीं भोगा है भगवान न करे उसके जीवन में ऐसा पल आये.......कभी कभी तो एक अपना घर का सपना देखते देखते सारी उमर निकल जाती है.

Comment by Sumit Naithani on June 28, 2013 at 3:52pm

दुनिया को दिखाने के लिये. 
मेरे पास सब कुछ था 
पर मेरा कभी कुछ न था...सुंदर 

Comment by विजय मिश्र on June 28, 2013 at 1:45pm
कून्तीजी ! मन को व्यक्त करने में तो आपकी सभी कविताएँ सक्षम और समर्थ रही हैं और इन्हें इनके स्वरुप में समझने के लिए शांतचीत्त मनोदशा की जरूरत होती है मगर यहाँ तो आपने भावनाओं का ज्वार उठा दिया है . सपनों से दूर होते व्यथित मन और विचलित आधुनिक जीवन के कसमकस को अपूर्व उभार मिला है ,शिथिल होती भावनाओं को सामंजस्य से सहलाती सहेजती एक मर्मान्तक रचना .
"एक शहर के बीच शोर गुल में
बाहर की जगमगाती रोशनी में
अंधेरे कमरे को किसने देखा ?"

और फिर यह

"बिस्तर पर लेटे नींद नहीं आती
आँखें खोल इधर उधर देखती हूँ
तब –
निकली हुई वह परछाईं छ्त पर
अजगर सा लटकता नज़र आता है "
-- इनमें तो आपने सिहरन पैदा करने की शक्ति भर दियी है . धन्य रचना धर्मिता, आपको प्रणाम .

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 28, 2013 at 12:24pm

पूरे घर में ढूंढती रही एक किनारा जो मुझे अपना सा लगे...एक किनारा जिसे अपना सा कर सकूँ....पर नहीं वो तुम्हारा ही रहा

ऐसी ही आतंरिक भावों को जीती, अंदर तक कचोटती, संवेदनाओं को स्पंदित करती मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति के लिए हृदय से शुभकामनाएँ.

सादर 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
22 minutes ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
7 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
7 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
8 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
9 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
11 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
yesterday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
yesterday
LEKHRAJ MEENA is now a member of Open Books Online
Wednesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service