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मेरी आह के बाद ....

सुनो,
तुम तो जानती ही हो ....

मेरी ग़ज़ल,
मेरी कविताओं ...
के हर अलफ़ाज़ को ...

और ये भी,
कि ये दुनियाँ कितनी रुखी है ...
ये जमाने भर तल्खी,
अक्सर घाव कर देती है,
मुझ पर ...

फिर तितलिया ..
वक्त के साथ साथ,
फीकी पड़ जाती है,
चुभते है नाश्तर बन के रंग...

और एक कसक लिए मैं,
जमाने के दरार वाले इस पहाड़ के पीछे,
करता हूँ तुम्हारा इन्तजार ..

तुम देखना,
एक दिन ये दुनियाँ,
ताजमहल के साथ भरभरा कर,
गिर पड़ेगी मेरे सीने पर ....
और मेरी आह,
उस दरार के रास्ते से,
उतर जायेगी तुम्हारे दिल में......

सुनो,
तुम तो जानती ही हो ....
मेरी ग़ज़ल,
मेरी कविताओं ...
के हर अलफ़ाज़ के बीच ...
एक खामोशी है ...
जिस पर फ़कत तुम्हारा हक है ....

तुम इसे जरुर चुन लेना,
मेरी आह के बाद ....

सुनो,
तुम जानती तो हो ना ....
~अमितेष

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by राजेश 'मृदु' on June 11, 2013 at 6:13pm

बहुत ही सुंदर रचना है

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 11, 2013 at 5:51pm
वाह अमितेष जी, वाह! सुंदर अभिव्यक्ति...."तुम देखना एक दिन ये दुनियाँ, ताजमहल के साथ भरभराकर, गिर पड़ेगी मेरे सीने पर...और मेरी आह, उस दरार के रास्ते से, उतर जायेगी तुम्हारे दिल में....बहुत खूबसूरत पंक्तियां, हार्दिक शुभकामनाऐं
Comment by Shyam Narain Verma on June 11, 2013 at 4:53pm

सुदर अभिव्यक्ति............................

Comment by aman kumar on June 11, 2013 at 3:47pm

आपकी रचना जो दिल मेँ उतर गई.........

Comment by Abid ali mansoori on June 11, 2013 at 11:21am
वाह..अमितेष जी सुदर अभिव्यक्ति!

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