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(दशकों पहले आदिल लुख्नवी की एक रचना ‘दुम’ पढने में आयी थी, उससे प्रेरित हो कर 1986 में ये रचना की. वैसे आदिल जी की रचना भी अंतर्जाल पर उपलब्ध है. आशा है, सुधी जनो को ये प्रयास भी नाकारा तो नहीं लगेगा. ये भी मेरे पूर्व प्रस्तुतियों की भांति अप्रकाशित रचना है)

दुम

कुदरत की नायाब कारीगरी है दुम।

अफसोस मगर इंसान की, हो गई वो गुम।।

पहले कभी वो थी, ये मुझको है यकीन।

गायब खुद हो गई, पर रह गई ज़मीन।।

बंदर की सब खूबियां हैं इन्सान के अंदर। 

दुम होती तो ये जानवर, हो जाता कलंदर।।

दुम हिला हिला के वफादारी दिखाते।

फैशन औ नखरे कितने इजाद हो जाते।।

जवानों की तो पूछो मत, खूब बन आती।

छोरे अपनी दुम, वो दुपटटों को हिलाती।।

हसीनाएं अदाओं से दुम लहराती निकलती।

दुम ऐंठते  जवानों की बस आहें निकलती।।

रंजो गम में दिल नहीं, फिर टूटती दुमें।

मेहबूबा खुशी में इनको लग जाती चूमने।।

मारे खुशी के उनकी दुम उचक उचक जाती।

सदमे जो पेश आते, ये लटक लटक जाती।।

रूमाल की जगह कमसिनें, बाल दुम के छोड़ती।

टीचर भी कान छोड़ बस, दुम ही मरोड़ती।।

घूंघट नहीं दुल्हन, दुम समेटती रहती।

दुम सहेजने को लेके, सासू टोकती रहती।।

मर्दों की शान होती पूंछ, मूंछ ना होती।

ताली बजाते जनखे, उनके पूंछ ना होती

अफसर सारे, रुआब में दुम तानते रहते।

मातहत दुम दबा के हुकुम मानते रहते।।

संसद में किसी बात पे जो मतदान होता।

तो वहां अध्यक्षजी का ये ऐलान होता।।

जो पक्ष में हों इसके, अपनी दुम को उठा दें।

और जो विरोध में हों वो दुम को गिरा दें।।

वक्त बेवक्त लोग  जो खूब गरजते।

दुम उठाने पे वो सब मादा निकलते।।

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 16, 2013 at 4:08pm

इंसान की करनी जैसे वैसी, दुम हिलाने को नहीं रही, कोई पूछ नहीं रही 

दर तो अब ये है की रही सही मूंछ भी कट ने पर,आबरू भी कही नहीं रही 

सुन्दर व्यंगात्मक रचना के लिए बधाई श्री सुरेंद वर्मा जी 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 16, 2013 at 1:40pm

वाह वाह आदरणीय ग़ज़ब की कल्पना की है 
शानदार यदि पूछ होती तो पूछ होती
वाह
बहुत बहुत बधाई हो आपको सादर

Comment by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 16, 2013 at 11:57am

सबके प्रति विनम्र आभार....खुली बात ये कि कितने वर्षों बाद अपनी ठोक-पीट को सार्वजनिक कर रहा हूँ... कुछ तो निजता में और कुछ अपने कार्यों में व्यस्त रहा...इतनी सुंदर प्रतिक्रियाओं के लिए पुनः आभार... सबको नमन...

Comment by Yogi Saraswat on April 16, 2013 at 11:14am

टीचर भी कान छोड़ बस, दुम ही मरोड़ती।।

घूंघट नहीं दुल्हन, दुम समेटती रहती।

दुम सहेजने को लेके, सासू टोकती रहती।।

मर्दों की शान होती पूंछ, मूंछ ना होती।

ताली बजाते जनखे, उनके पूंछ ना होती

अफसर सारे, रुआब में दुम तानते रहते।

मातहत दुम दबा के हुकुम मानते रहते।।

संसद में किसी बात पे जो मतदान होता।

तो वहां अध्यक्षजी का ये ऐलान होता।।

जो पक्ष में हों इसके, अपनी दुम को उठा दें।

और जो विरोध में हों वो दुम को गिरा दें।।

वक्त बेवक्त लोग  जो खूब गरजते।

दुम उठाने पे वो सब मादा निकलते।।

इस विषय पर भी रचना कही जा सकती है ? और वो भी इतनी विस्तृत इतनी सुन्दर !!! कमाल है

Comment by बसंत नेमा on April 16, 2013 at 10:07am

हा हा हा ...बडी दुमदार ओ ओ ओ  माफ करे बडी दमदार दुम है .....सुबह दुम की तो दिन तुम्हारा ....बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 16, 2013 at 9:59am

हाहहाहा हाहहाहा............. दुम की क्या खूब कल्पना कराई है.वाह.

इस हास्य के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय सुरेन्द्र वर्मा जी 

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 15, 2013 at 11:12pm

वाह! आदरणीय बहुत सुन्दर रचना बरबस मुख पर हास्य की लकीर खींचती है. बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by coontee mukerji on April 15, 2013 at 10:47pm

आदरणिय वर्मा जी ,  आपने खाल तो खींच ली साथ ही दुम भी चिपका दिया ,बहुत खूब ! कल्पना की क्या मिसाल है .मान लीजिए अगर

आपकी बात सच हो गई तो .........? ? ? ? ? सादर  कुंती


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 15, 2013 at 8:58pm

हास्य और दुम ....मेरा मतलब हास्य और व्यंग का अद्भुत संगम है इस रचना में, अच्छी लगी रचना ।  आदरणीय सुरेन्द्र वर्मा जी, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें ।

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