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               अभिलाषा

मेरी अब  यही एक अभिलाषा है
कि दूर क्षितिज में जाने से पहले
इन बेनाम-लावारिस कविताओं का
नामकरण करता चलूँ ।
 
सुनो, तुम्हें न्योता भेजूँ तो
आओगी न ?
 
तुम्हारे आने की प्रत्याशा में मैं
फूला नहीं समाऊँगा, और
एक बहुत सुन्दर मंडप सजाऊँगा,
वैसा ही जैसे बचपन में कभी
तुमने सजाया था,
खेल-खेल में जब तुमने
नाम मेरा अपनाया था ।
 
लेकिन अब इतने वर्ष उपरान्त
मेरे पास हवन के लिए सामग्री
और कमंडल में पानी
बहुत कम बाकी है ।
 
आते-आते तुम उसी नदी से प्रिय
कुछ पानी और ले आना
वहीं जिस नदी पर तुमने कभी
सूर्य-नमस्कार के बाद
दूधिया किरणों के सम्मुख
मेरे लिए मनोती माँगी थी
और मैनें झट तुम्हारे ओंठों पर
अपना हाथ रख दिया था ।
 
और हाँ, सामग्री के लिए
ले आना कुछ सूखी फलियाँ
नदी के पास उसी खेत से तुम
जिसकी ऊँची-लम्बी फ़सल में हम
झाड़ियों में छिप जाते थे
और जहाँ पर मैंने
तुम्हारे पैर में चुभा काँटा, स्नेह से
एक और काँटे से निकाला था,
और तुम देर तक मेरे कंधे का
सहारा लिए खड़ी रही थी।
                ---------
                                            -- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by coontee mukerji on April 17, 2013 at 12:53pm

मेरी अब यही एक अभिलाषा है
कि दूर क्षितिज में जाने से पहले
इन बेनाम-लावारिस कविताओं का
नामकरण करता चलूँ

श्रद्धेय, मैं और शरद अभी साथ बैठकर आपकी पंक्तियाँ पढ़ रहे थे. आपका क्षितिज अभी दूर है....हमें आपके आकाश का हिस्सा बनना है आपकी भावनाओं के उड़नखटोले में बैठकर. आपके कमण्डल में पानी कभी खत्म न हो.......यह निश्चित रूप से हमारी ही नहीं, पूरे ओ.बी.ओ. परिवार की " अभिलाषा " है.

Comment by Kedia Chhirag on April 16, 2013 at 10:00am

लाज़बाब ...बहुत ही खूबसूरत एवं भावनापूर्ण अभिव्यक्ति .......

Comment by vijay nikore on April 16, 2013 at 6:05am

आदरणीया वंदना जी:

 

आपने कहा ....//अद्वितीय अभिव्यक्ति! //

 

आपकी सराहना मेरा मनोबल है।

हार्दिक धन्यवाद।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on April 16, 2013 at 5:58am

आदरणीया गीतिका जी:

 

कविता के भाव आपको अच्छे लगे,

मेरा लिखना सार्थक हुआ।

आपका हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on April 15, 2013 at 6:19am

आदरणीया विजयाश्री जी:

 

//अन्तःमन से निकली  भावपूर्ण अभिव्यक्ति//

 

आपसे मिली सराहना से मनोबल बढ़ा..

आपका हार्दिक धन्यवाद।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on April 15, 2013 at 6:16am

 आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी:

//हम आपके उन्हीं शब्दों के रथ पर बैठकर उड़ चलते हैं।
जहाँ हमें आपके अनुभवों के मोती मिलते हैं॥//

आपकी प्रतिक्रिया में हमें आपसे मोती मिले ... आपका

हार्दिक आभार। मित्र, ऐसे ही स्नेह बनाए रखें।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 13, 2013 at 5:38pm

आदरणीय विजय निकोर जी बहुत भावपूर्ण संस्मरण को  शब्दों में बांधा है हर बार की तरह दिल को छूती प्रस्तुति हार्दिक बधाई आपको।  कांटे वाली पंक्तियाँ बरबस मुंशी प्रेम चंद   जी की कहानी  बुद्धू का काँटा की याद दिलाती हैं। 

Comment by vijay nikore on April 13, 2013 at 12:07pm

आदरणीय राजेश जी,

 

// मन के हर परत को छूती आपकी रचना बहुत ही अच्‍छी लगी //

 

आपकी इस अच्छी सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।

स्नेह बनाए रखें।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by Yogi Saraswat on April 13, 2013 at 10:48am
और हाँ, सामग्री के लिए
ले आना कुछ सूखी फलियाँ
नदी के पास उसी खेत से तुम
जिसकी ऊँची-लम्बी फ़सल में हम
झाड़ियों में छिप जाते थे
और जहाँ पर मैंने
तुम्हारे पैर में चुभा काँटा, स्नेह से
एक और काँटे से निकाला था,
और तुम देर तक मेरे कंधे का
सहारा लिए खड़ी रही थ
मन अगर पंछी होता तो मैं भी अभी उन्हीं पालो मरीं , उन्हीं दिनों को फिर से जीने के लिए पहुँच गया होता ! बहुत बहुत सुन्दर भाव आदरणीय विजय निकोर जी ! दिल से तारीफ निकलती है ऐसे शब्दों के लिए !
Comment by vijay nikore on April 13, 2013 at 10:10am

आदरणीय लक्ष्मण जी:

 

// आपकी रचन्नाए अंतर्मन के सुनहरे पलों के भाव संजोये ही होती है, और अंतर्मन से

लोखी रचना सुन्दर सुन्दर रंग समाते है //

 

मित्र, आप मेरे कविता के भावों में जो गहराई देखते हैं वह आपके ही मन की गहराई है,

जो उनको समझ पाती है। आपका कोटिश धन्यवाद।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

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