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जिसके हक़ में, मैं सदा, दिल से दुआ करता रहा |

वो हमेशा, मुझपे जाने, क्यूँ शुबहा करता रहा ||

दोस्त था कहने को मेरा, दोस्ती न कर सका |

दोस्ती के नाम पर ही वो, दगा करता रहा ||

हमकदम था चल रहा, पर हमनफस न बन सका |

मैं भला करता रहा, और वो बुरा करता रहा ||

जिसकी खुशियों के लिए, मैं मन्नतें माँगा किया |

वो मेरे दिल को हमेशा, ही धुआँ करता रहा ||

जब भी उससे नेक-ओ-बद का, तज़करा मैंने किया |

वो ‘शशि की बात अक्सर, अनसुना करता रहा || 

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Comment by pawan amba on February 27, 2013 at 4:33pm

वो हमेशा, मुझपे जाने, क्यूँ शुबहा करता रहा ||...bahut hi khubsurat 


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Comment by Saurabh Pandey on February 26, 2013 at 5:17pm

नादिर भाई, इस ग़ज़ल में काफ़िया ’आ’ और रदीफ़ ’करता रहा’ बन रहा है. इस हिसाब से किसी शब्द का आखिरी अक्षर काफ़िया के रूप में ’आँ’ बनना गलत ही होगा.

Comment by नादिर ख़ान on February 26, 2013 at 5:08pm

जिसके हक़ में, मैं सदा, दिल से दुआ करता रहा
वो हमेशा, मुझपे जाने, क्यूँ शुबहा करता रहा

बहुत उम्दा मतला है शशी मेहरा जी
काफिया आपने आ की मात्रा ली है पर यहाँ धुआँ  kafiya आं पर है , क्या यह  लिया जा सकता ।है मेरी जानकारी थोड़ी कम है, कृपया मार्गदर्शन करें।

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 25, 2013 at 8:56pm
एक लाजवाब गजल के लिये बधाई आदरणीय।

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Comment by Saurabh Pandey on February 25, 2013 at 8:46pm

बधाई. .

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 25, 2013 at 8:14pm

बेहतरीन लाजवाब क्या बात है दाद क़ुबूल कीजिये साहिब .............वाह वा

Comment by बृजेश नीरज on February 25, 2013 at 6:10pm

जिसकी खुशियों के लिए, मैं मन्नतें माँगा किया |

वो मेरे दिल को हमेशा, ही धुआँ करता रहा ||

बहुत सुन्दर बात कही आपने। इस बेहतरीन रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 25, 2013 at 6:06pm
सुन्दर रचना, बधाई शशि महरा जी, 

दोस्त जिसको शशी कहे, काहे का वह यार

छान बीन पहले करे, तब  हो बेडा   पार । 
दोस्त रहे  या नहि रहे, रखना उसका मान,
वर्ना होगी दुश्मनी,  इतना  पहले  जान । - लक्ष्मण 
 

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