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देखा है

क्रूर वक़्त को,

पैने पंजों से नोचते

कोमल फूलों की मासूमियत

और बिलखते बिलखते

फूलों का बनते जाना पत्थर,

 

देखा है

पत्थर को गुपचुप रोते

फिर कोमलता पाने को

फूल सा खिल जाने को

मुस्काने को, खिलखिलाने को,

 

देखा है

अटूट पत्थर का

फूल बन जाना

फिर कोमलता पाना

महकना, मुस्काना, इतराना,

 

देखा है

सब कुछ बदलते

आकाश से पाताल तक

फिर भी मैं वही हूँ सर्वदा....

न फूल, न पत्थर, न कारण

मात्र दृष्टा,

सब कुछ बदलते जाने का.

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Comment

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Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 9:05am

आदरणीया प्राची जी:

 

आज आपकी यह उत्कृष्ट रचना पुन: पढ़ी,

लगा कि इसमें उपनिष्दों का सार पढ़ा।

 

इसे लिखने के लिए धन्यवाद!

 

विजय


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 12, 2013 at 2:48pm

आदरणीय सौरभ जी, रचना के कथ्य को अनुमोदित करने के लिए आपका हार्दिक आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 12, 2013 at 12:08am

वाह ! बहुत सुन्दर !!!

खेद है, यह रचना आज देख पाया ! .. . अति उच्च कथ्य का सार्थक प्रस्तुतिकरण हुआ है.

हार्दिक बधाई. .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 11, 2013 at 11:59pm

इस अभिव्यक्ति को सराह कर प्रोत्साहित करने के लिए आ. विजय निकोर जी, प्रदीप कुशवाहा जी, शालिनी कौशिक जी, अशोक कुमार रक्ताले जी, चंद्रेश कुमार जी, और लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी, आप सबकी ह्रदय से आभारी हूँ, सादर.

Comment by vijay nikore on December 10, 2012 at 8:07pm

प्राची जी,

दार्शनिक्ता से भरपूर इस सुन्दर रचना के लिए बधाई।

विजय निकोर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 1, 2012 at 3:38pm

देखा है

सब कुछ बदलते

आकाश से पाताल तक

फिर भी मैं वही हूँ सर्वदा....

न फूल, न पत्थर, न कारण

मात्र दृष्टा,

सब कुछ बदलते जाने का.

सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई,

आदरणीय प्राची जी, सादर 

Comment by shalini kaushik on November 26, 2012 at 11:56pm

sundar bhavpoorn prastuti

Comment by Ashok Kumar Raktale on November 26, 2012 at 9:15pm

आदरेया प्राची जी 

                     सादर, बहुत सुन्दर द्विभाव प्रस्तुत करती रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 26, 2012 at 7:40pm

बहुत उम्दा डा. प्राची सिंह जी, जितना कुछ इस कविता ने देखा है, वो सब कुछ देखा है जीवन में|

फूलों से पत्थर - पत्थर के आन्सू और फिर पत्थर से फूल| और जो ना बदला है वो है द्रष्टा, जो अकर्ता - निर्विकार है|

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 26, 2012 at 11:29am
सुन्दर भाव रचना, पत्थर दिल भी रोता है, समय आने पर हँसता है खिलखिलाता है 
कनु जाने जो पत्थर क्रूर लग रहा है, अहिल्या हो, क्रूर कहे या नियति से पत्थर बन,
फिर समय आने पर वास्तिवक रूप में आ खुशाल हो । बदलते देखते है पर हा तो वही 
आपने लिखा है बिलकुल सही हार्दिक बधाई डॉ प्राची सिंह जी 

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