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यूं ही तोड़ लिया था उस दिन,
एक सफ़ेद गुलाब बागीचे से,
मैंने तुम्हारे लिए/
कि सौंप कर तुम्हें..
तुमसे सारे भाव मन के
कह दूंगा,
नीली नीली स्याही सा
कोरे कागज़ पर बह दूंगा/
हो जाऊँगा समर्पित ,
पुष्प की तरह/
फिर तुम ठुकरा देना
या अपना लेना/
मगर फिर तुम्हारे सामने...
शब्द रुंध गये/
स्याही जम गयी/
धडकनें बढ़ गयीं/
सांस थम गयी/
मैं असमर्थ था ..
तुम्हरी आँखों के सुर्ख सवालों,
का उत्तर देने में/
या कि उस लिखे हुए उत्तर के लिए,
सवाल गढ़ने में/
लौट आया,
और दफ्न कर दिया फिर उस सफ़ेद गुलाब को,
डायरी के दो पृष्ठों के बीच/
वहीँ उड़ेल दी स्याही, सारे भाव,
सारे शब्द/
तब से अब तक
वो दौर जारी है,
रोज़ एक सफ़ेद गुलाब दम तोड़ता है
मन के दो पृष्ठों की बीच/
और फैलती है...स्याही आज भी/
बहते हैं भाव आज भी/
मगर असमर्थ हैं,
इस अकेलेपन के पृष्ठों को रंगने में/
आज भी...अतृप्त है कुछ....


-पुष्यमित्र उपाध्याय

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Comment

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Comment by seema agrawal on October 12, 2012 at 11:30pm

तुम्हरी आँखों के सुर्ख सवालों, 
का उत्तर देने में/
या कि उस लिखे हुए उत्तर के लिए,
सवाल गढ़ने में/......बहुत खूब .....भावपूर्ण प्रस्तुति ..बधाई पुष्यमित्र जी 

Comment by Rekha Joshi on October 12, 2012 at 10:08pm

मगर फिर तुम्हारे सामने...
शब्द रुंध गये/
स्याही जम गयी/
धडकनें बढ़ गयीं/
सांस थम गयी/
मैं असमर्थ था ..,सुंदर भाव पुष्यमित्र जी ,बधाई 

Comment by Pushyamitra Upadhyay on October 12, 2012 at 7:39pm

प्रभाकर सर, पाण्डेय सर, अविनाश सर...आप सभी का आशीष पाकर बहुत प्रसन्न और गौरवान्वित अनुभव आकर रहा हूँ...आपके मार्गदर्शन का ह्रदय से आभारी हूँ पाण्डेय सर...आशीष बनाये रखिये अनुज पर

Comment by AVINASH S BAGDE on October 12, 2012 at 7:10pm

तब से अब तक
वो दौर जारी है,
रोज़ एक सफ़ेद गुलाब दम तोड़ता है
मन के दो पृष्ठों की बीच/
और फैलती है...स्याही आज भी/...bhaw poorn.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 12, 2012 at 1:56pm

रोज़ एक सफ़ेद गुलाब दम तोड़ता है
मन के दो पृष्ठों की बीच/
और फैलती है...स्याही आज भी/
बहते हैं भाव आज भी/
मगर असमर्थ हैं,
इस अकेलेपन के पृष्ठों को रंगने में/
आज भी...अतृप्त है कुछ....

सही है, भाई. शाब्दिकता को थोड़ा कम करें. भाव-प्रधान रचना हेतु बधाई.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 12, 2012 at 10:55am

पुष्यमित्र उपाध्याय जी सुन्दर अभिव्यक्ति है - बहुत खूब बधाई स्वीकार करें.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 12, 2012 at 9:19am

कोमल भावनाओं से युक्त एक अच्छी रचना, बधाई पुष्यमित्र जी |

Comment by Pushyamitra Upadhyay on October 11, 2012 at 4:59pm

sandeep ji..........rajesh didi....aapka aashish paakar abhibhut hain...truti ke liye kshama chahta hoon ... :)

aasheesh bnaaye rakhiye

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 11, 2012 at 12:32pm

आदरणीय पुष्यमित्र जी बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति रची है आपने ह्रदय से बधाई स्वीकारें

मैं भी आदरणीया राजेश कुमारी जी से सहमत हूँ बस वहीँ इक पल था जब पढने में थोडा खटका
बाकी तो रचना के हर प्रष्ठ ने अंत तक बांधे रखा
बहुत बहुत बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 11, 2012 at 10:01am

नीली नीली स्याही सा
कोरे कागज़ पर बह दूंगा/-----क्यूंकि ऊपर के सन्दर्भ को देखते हुए बात अपने विषय में कर रहे हैं तो बह दूंगा नहीं बह लूँगा आएगा 

प्रथम प्रेम निमंत्रण की झिझक हया और पश्चाताप के  सम्मिलित भावों को बड़ी खूबसूरती से उभारा है  आपने इस रचना में बहुत अच्छी लगी बहुत बहुत बधाई आपको 

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