For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

तुम क्या समझो तुम क्या जानो......मोनिका जैन "डाली"

तुम क्या समझो तुम क्या जानो
है पीर कहा ? है दर्द कहाँ ?
क्यों है मन आकुल व्याकुल सा
क्यों है तन थका थका सा ये
क्यों हार - हार कर  भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं
क्यों बुझे हूऐ दीपों में मैं
आशा की जोत जलाती हूँ  
क्यों हूँ  रूठी हूँ दुनिया से मैं
क्यों फिर भी सबसे हिली मिली
हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी
मैं क्यों खडी - खडी मुस्काती हूँ ?
क्या है ? क्यों है ? कैसा है ?
प्रश्नों की ठेलम ठेली है !
हो चकित देख कर मुझको तुम
हो भ्रमित कभी झुंझलाते हो
करते हो तुम भी प्रश्न कई
पर कभी नहीं सोचा तुमने
पर कभी नहीं समझा तुमने
उन प्रश्नों  का उत्तर है ये
मैं नहीं रही बस स्त्री अब
मैं मा हूँ अब बस मा हूँ
जो गुंथी गई पीड़ा से है
जो बुनी गई ममता से  है
तुम क्या समझो तुम क्या जानो
क्यों हार - हार कर  भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं

  • Monika Jain "Dolly" 06 May 2012

Views: 1316

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 8, 2012 at 3:45pm
बहुत खूबसूरत रचना प्रिय मोनिका जी..
गहनतम पीड़ा के एहसासों को शब्द दियें हैं आपने,
ये सच है की स्त्री कई बार इतनी उपेक्षिता हो जाती है, कि उसका जीवन ही अर्थविहीन हो जाता है... पर जब वो माँ बनती है, तो मासूम बच्चा कहता है, माँ मैं सिर्फ तेरे भरोसे ही आया हूँ... नहीं जी सकता मैं तेरे बिना... तब स्त्री सिर्फ एक माँ ही बन जाती है, वायदा करती है अपने आप से अपनी ही ज़िंदगी का, क्योंकि, बच्चा माँ के बिना अधूरा रह जाता है...
माँ हर एक ज़हर को पी कर भी जी लेती है, क्योंकि जानती है, वो नहीं जियेगी तो बच्चे का क्या होगा...?
आपकी इस अभिवक्ति पर आपको , व मातृत्व को नमन.
Comment by राज लाली बटाला on May 8, 2012 at 1:33am

तुम क्या समझो तुम क्या जानो
है पीर कहा ? है दर्द कहाँ ? Achhi lagi yeh rachna !! Monica ji ! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 7, 2012 at 9:16pm

मोनिका जी, आपकी प्रस्तुत रचना प्रवाहमान है तथा इसका कथ्य उच्च है.  इस अतुकांत कविता में शब्द-संयोजन भी आपने बहुत ही अच्छी तरह से निभाया है. 

इस भूमिकापरक अभिव्यक्ति पर ढेरों बधाई व शुभकामनाएँ स्वीकारें ...

क्यों है मन आकुल व्याकुल सा
क्यों है तन थका थका सा ये
क्यों हार - हार कर भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं
क्यों बुझे हूऐ दीपों में मैं
आशा की जोत जलाती हूँ

Comment by Abhinav Arun on May 7, 2012 at 6:34pm

मैं नहीं रही बस स्त्री अब
मैं मा हूँ अब बस मा हूँ
जो गुंथी गई पीड़ा से है
जो बुनी गई ममता से  है
माँ की ममता को नमन है और मोनिका जी आपकी इस रचना की भी जितनी तारीफ की जाए कम है बहुत सुन्दर भाव संयोजन हार्दिक बधाई !!

Comment by ganesh lohani on May 7, 2012 at 2:41pm

हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी 
मैं क्यों खडी - खडी मुस्काती हूँ ? 
क्या है ? क्यों है ? कैसा है ? 
प्रश्नों की ठेलम ठेली है !

सुन्दर अभिव्यक्ति मोनिका जी  शुभकामनायें 

Comment by MAHIMA SHREE on May 7, 2012 at 1:29pm
क्यों हार - हार कर भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं
क्यों बुझे हूऐ दीपों में मैं
आशा की जोत जलाती हूँ
क्यों हूँ रूठी हूँ दुनिया से मैं
क्यों फिर भी सबसे हिली मिली
हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी
मैं क्यों खडी - खडी मुस्काती हूँ ?
क्या है ? क्यों है ? कैसा है ?

मैं नहीं रही बस स्त्री अब
मैं मा हूँ अब बस मा हूँ
जो गुंथी गई पीड़ा से है
जो बुनी गई ममता से है

आदरणीया मोनिका जी , नमस्कार
बहुत ही सुंदर रचना .. मन के भावो से रची बसी
बधाई स्वीकार करें
Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 7, 2012 at 10:35am

आशा की जोत जलाती हूँ  
क्यों हूँ  रूठी हूँ दुनिया से मैं 
क्यों फिर भी सबसे हिली मिली 
हैं प्रश्न बहुत पर फिर भी 

बहुत सुन्दर| बधाई मोनिका जी |

Comment by Neelam Upadhyaya on May 7, 2012 at 9:44am

bahut hi sunder abhivyakti. Badhayee Monika ji.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 7, 2012 at 9:04am

मैं नहीं रही बस स्त्री अब 
मैं मा हूँ अब बस मा हूँ 
जो गुंथी गई पीड़ा से है 
जो बुनी गई ममता से  है
तुम क्या समझो तुम क्या जानो
क्यों हार - हार कर  भी लेती हूँ
जीने की प्रबल प्रतिग्या मैं....माँ होकर स्त्री सब दुनिया को भूल जाती है अपने को भूल जाती है उसकी परिधि में सिर्फ  अपने बच्चों के सुख दुःख ही रह जाते हैं ...खूब वर्णन किया है एक माँ एक नारी के अस्तित्व का ..बहुत सुन्दर| बधाई मोनिका जी |

Comment by Bhawesh Rajpal on May 7, 2012 at 6:17am

माँ की पीड़ा का वर्णन  ! अद्भुत शब्दावली  !  दिल को पिघला दिया ! आँखे भर आई !  

माँ  तुम  बहुत याद आ रही हो  !

बहुत सुन्दर रचना !

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
14 hours ago
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service