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सब को लगता व्यर्थ है, अर्थ बिना संसार।
रिश्तों तक को बेचता, इस कारण बाजार।।
*
वह रिश्ते ही सच  कहूँ, पाते  लम्बी आयु
जहाँ परखते हैं नहीं, दीपक को बन वायु।।
*
तोड़ो मत विश्वास की, कभी भूल से डोर
यह टूटा तो हो  गया, हर रिश्ता कमजोर।।
*
करे दम्भ लंकेश सा, कुल का पूर्ण विनाश।
ढके दम्भ की धूल ही, रिश्तों का आकाश।।
*
रिश्तों में  सब  ढूँढते, केवल स्वार्थ जुगाड़।
शेष बची है अब कहाँ, अपनेपन की आड़।।
*
सुख में सब वाचाल हैं, दुख में बेढब मौन
कौन पराया आज  है, बोलो अपना कौन।।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 10, 2025 at 8:50pm

आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। दोहों पर आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ। स्नेह के लिए आभार।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 10, 2025 at 8:48pm

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 10, 2025 at 4:08pm

आदरनीय लक्ष्मण भाई  , रिश्तों पर सार्थक दोहों की रचना के लिए बधाई 

Comment by Sushil Sarna on April 1, 2025 at 12:51pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी रिश्तों पर आधारित आपकी दोहावली बहुत सुंदर और सार्थक बन पड़ी है ।हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।

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