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दोहा पंचक. . . . .यथार्थ

दोहा पंचक. . . . यथार्थ

मन मंथन करता रहा, पाया नहीं  जवाब ।
दाता तूने सृष्टि की, कैसी लिखी किताब।।

आदि - अन्त की जगत पर, सुख - दुख करते रास ।
मिटने तक मिटती नहीं, भौतिक सुख की प्यास ।।

जीवन जल का बुलबुला, पल भर में मिट जाय ।
इससे बचने का नहीं, मिलता कभी उपाय ।।

साँसों के अस्तित्व का, सुलझा नहीं सवाल ।
दस्तक दे आता नहीं, क्रूर नियति का काल ।।

साम दाम दण्ड भेद सब, कितने करो प्रपंच ।
निश्चित तुमको छोड़ना, होगा जग का मंच ।।

सुशील सरना / 10-12-24

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sushil Sarna on December 17, 2024 at 9:30pm
आदरणीय चेतन प्रकाश जी सृजन के भावों को मान देने एवं समीक्षा का दिल से आभार । मार्गदर्शन का दिल से आभार । उचित होता यदि उसका शुद्ध रूप भी बता दिया होता तो त्रुटि और भी स्पष्ट हो जाती । सादर नमन
Comment by Sushil Sarna on December 17, 2024 at 9:26pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय
Comment by Chetan Prakash on December 16, 2024 at 12:15pm
अच्छे दोहे हुए हैं, आदरणीय सरना साहब, बधाई ! किन्तु दोहा-छंद मात्र कलों ( त्रिकल द्विकल आदि का संयोजन मात्र नहीं है, जैसा कि कुछ मित्र मंच पर विश्वास कर
ते जान पड़ते हैं!
अपितु, बंधु, कलों के वाच्य व्यवहार से जुड़ा है , जैसे आपके दूसरे दोहे का विषम चरण वाच्य सिद्धांत के अनुसार अशुद्ध है, बंधु, !
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 13, 2024 at 9:02am

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।

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