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सर्द रातें और प्रेम - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

( सरसी छंद)
***
धीरे-धीरे जब आती है, घर आँगन में शीत।
नाना रूपों में रक्षा  को, ढल जाती है प्रीत।।
माँ के हाथों स्वेटर में ढल, दे बचपन में साथ।
युवा हुए तो ऊष्मा देता, बन अनजाना हाथ।।
*
पत्नी होकर सदा चूमता, स्नेह शीत में माथ।
होते वंचित सिर्फ शीत में, लोगो यहाँ अनाथ।।
बचपन, यौवन रहे बुढ़ापा, सर्द शीत की रात।
उष्मित करती तन्हाई में, सिर्फ प्रीत की बात।।
*
प्रेम रहित तनमन करता है, जीवन से परिवाद।
सर्द शीत की रातों की  तो, ला  मत कोई याद।।
ऊष्मित होती निशा शीत  की, बनता नेह अलाव।
नेह रहित हो ग्रीष्म दिवस भी, करता रक्त जमाव।।
*
शीत लहर जितना भी कर दे, जाड़े का अनुवाद।
प्रेम भरा तनमन  ना  करता, थोड़ा भी अनुनाद।।
भले तीव्र हो कितना ही क्यों, शीत समीर प्रवाह।
छुअन प्रीत की सर्द निशा  में, लगती सूरज दाह।।
*
सर्द निशा हो साथ पिया का, नित देता आह्लाद।
पिया गये परदेश अगर  हों, उष्मित करती याद।।
हो जाड़े की  सर्द  रात में, जिसको प्रेम अलाव।
हल्के गर्म गुलाबी दिन सा, उसको जीवन भाव।।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 25, 2023 at 6:06pm

बढ़िया भावपूर्ण सृजन आदरणीय धामी जी

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