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गीत-११ (लक्ष्मण धामी "मुसाफिर")

गीत-११
*
स्वार्थ के विधान अब और यूँ गढ़ो नहीं।
अर्थ के अनर्थ कर प्रपंच नित पढ़ो नहीं।।
*
आप यूँ अनीति  को  लोभवश  न मान दो।
छीन निर्बलों से मत सशक्त को जहान दो।।
मार्ग  हो  कठिन  भले  हर  परोपकार  का।
सिर्फ हित स्वयं के ही मत कभी वितान दो।।
*
अशक्त पर प्रहार कर क्रूर दर्प से बिहँस।
मानकर अनाथ हैं  दोष  निज मढ़ो नहीं।।
*
आह हर अशक्त  की वज्र जब रचायेगी।
कौन शक्ति पाप का घट भला बचायेगी।।
हर तमस के अन्त को दीप जन्मता सदा।
सूर्य की किरण कभी खोह में भी आयेगी।।
*
शीर्ष की ये  कामना  अधर्म से न पूर्ण हो।
सीढ़िया शवों को मान आप यूँ चढ़ो नहीं।।
*
न्याय दण्ड प्रीति का नीतिमय निदान हो।
लक्ष प्राप्ति के लिए  छल नहीं प्रधान हो।।
हों फलित सुकर्म के कोपलों से नव कुसुम।
नार हो कि दीन  हो, पददलित  न मान हो।।
*
सत्य पथ भले कठिन किन्तु पाप से रहित।
पथ सरल असत्य का देख नित बढ़ो नहीं।।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2023 at 6:29am

आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। आपको गीत पसंद आया लेखन सफल हुआ। स्नेह के लिए हार्दिक आभार।

Comment by Dayaram Methani on January 7, 2023 at 5:28pm

आह हर अशक्त की वज्र जब रचायेगी।
कौन शक्ति पाप का घट भला बचायेगी।।
हर तमस के अन्त को दीप जन्मता सदा।
सूर्य की किरण कभी खोह में भी आयेगी।।.........अति सुंदर। बधाई आपको।

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