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2122 - 1122 - 1122 - 112/(22)

दिल धड़कने की सदा ऐसी भी गुमसुम तो न थी

इतनी बे-परवा मेरी जान कभी तुम तो न थी 

हम तड़पते ही रहे तुम को न अहसास हुआ 

अपनी उल्फ़त की कशिश इतनी सनम कम तो न थी 

सब ने देखा मेरी आँखों से बरसता सावन

थी वो बरसात बड़े ज़ोरो की रिम-झिम तो न थी

तुम जिसे ज़ीनत-ए-गुल समझे थे अरमान मेरे 

गुल पे क़तरे थे मेरे अश्कों के शबनम तो न थी 

क्यूँ न आहों ने मेरी आ के तेरे दिल को छुआ

तेरी उल्फ़त किसी चाहत में कहीं गुम तो न थी 

तुम ने अपनी ही वफ़ाओं का सिला क्यूँ चाहा

रग़्बत-ए-इश्क़ सनम मेरी भी कुछ कम तो न थी

बे-वफ़ा शाद रहे छोड़ के तू जा मुझको 

ज़िन्दगी यूँ भी तेरे साथ मुनज़्ज़म तो न थी 

"मौलिक व अप्रकाशित" 

 

ज़ीनत-ए-गुल - फूल की शोभा या श्रंगार

रग़्बत-ए-इश्क़ - प्रेम के प्रति अनुराग

मुनज़्ज़म - संगठित, सुनियोजित, क्रियागत

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 6, 2022 at 9:44pm

आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन। अच्छी नज्म हुई है। हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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