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2122 2122 2122 212

1

उनकी आँखों में उतर कर ख़ुद को देखा है कहाँ

हक़ अभी तक उनके दिल पर इतना अपना है कहाँ

2

आदतें यूँ तो मिलेंगी एक सी लोगों में पर

उनके दिल में एक सा एहसास होता है कहाँ

3

है लड़ाई ख़ुद से अपनी है बग़ावत ख़ुद ही से

बात इतनी सी ज़माना भी समझता है कहाँ

4

चारदीवारी में घर की साथ तो रहते हैं सब

ज़ाविया पर उनके दिल का एक जैसा है कहाँ

5

देख लिया गल कर पसीने में भी हमने रात दिन

बदले में मेहनत के पूरा पैसा मिलता है कहाँ

6

उसके दर पर माँगने से पहले इतना सोच लो

अपना फ़ुर्सत ए शौक़ तुमने यार रक्खा है कहाँ

7

उसके होटों का पियाला पी तो लूँ "निर्मल" मगर

प्यार इतना उसके दिल पर मुझको आता है कहाँ

मौलिक व अप्रकाशित

रचना निर्मल

Views: 900

Comment

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Comment by Rachna Bhatia on August 3, 2021 at 6:25pm

आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार।सर्,आपके द्वारा दी गई अनमोल इस्लाह के लिए आपकी आभारी हूँ। जी सर, मैं अपने साथियों की भी आभारी हूँ जिन्होंने ग़ज़ल ठीक करने में मदद की।

आवश्यक सुधार फेयर में कर लेती हूँ।

सादर।

 

Comment by Samar kabeer on August 3, 2021 at 4:01pm

मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, और गुणीजनों ने सुझाव भी अच्छे दिये हैं, बधाई स्वीकार करें ।

'आदतें यूँ तो मिलेंगी एक सी लोगों में पर

उनके दिल में एक सा एहसास होता है कहाँ'

ऊला मिसरे में भाई धामी जी के सुझाव के मुताबिक़ 'में' की जगह 'की' करना उचित होगा,और सानी में 'उनके' की जगह "सबके" करना उचित होगा ।

'बात इतनी सी ज़माना भी समझता है कहाँ'

इस मिसरे में 'भी' की जगह "ये" करना उचित होगा ।

'ज़ाविया पर उनके दिल का एक जैसा है कहाँ'

इस मिसरे को यूँ कहना उचित होगा:-

'ज़ाविया उनकी नज़र का एक जैसा है कहाँ'

'देख लिया गल कर पसीने में भी हमने रात दिन

बदले में मेहनत के पूरा पैसा मिलता है कहाँ'

इस शैर का ऊला यूँ कह सकती हैं:-

'हमने देखा है पसीने  में भी गल कर दोस्तो'

और सानी में 'मेहनत' को "मिहनत" लिखें ।

'उसके दर पर माँगने से पहले इतना सोच लो

अपना फ़ुर्सत ए शौक़ तुमने यार रक्खा है कहाँ'

इस शैर को यूँ कह सकती हैं:-

'माँग ले जो चाहे उससे रात के पिछले पहर

सब तुझे दे देगा बंदे ऐसा दाता है कहाँ'

Comment by Rachna Bhatia on August 3, 2021 at 12:52pm

आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार।सर्,6 इस तरह से कर सकते हैं क्या

उसके दर पर माँगने से पहले इतना सोचना

मन अभी ख़ुद-ग़र्ज़ी से तुमने हटाया है कहाँ

सादर।

पूरी ग़ज़ल पर आपकी इस्लाह का इंतज़ार है। सादर।

Comment by Rachna Bhatia on August 2, 2021 at 8:39pm

आदरणीय अमीरुद्दीन'अमीर'जी नमस्कार। अच्छा सुझाव है।

आभार।

बस..एक बार समर कबीर सर् की इस्लाह आ जाए तो फेयर में सुधार कर लेती हूँ।

सादर।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 2, 2021 at 4:42pm

मुहतरमा 'निर्मल' जी, लक्ष्मण धामी जी ने अच्छी तरमीम सुझाई है, छठा शे'र अगर आपकी भावना के अनुरूप हो तो यूँ कर सकते हैं-

उसके दर पर माँगने से पहले भी क्या सोचना 

बे झिझक चाहे जो माँगो ऐसा दाता है कहाँ        सादर। 

Comment by Rachna Bhatia on August 2, 2021 at 12:47pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई नमस्कार। आपने अच्छा सुझाव दिया । आभार। भाई,6 के लिए भी सुझाव दें। सादर।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 2, 2021 at 12:29pm

आ. रचना बहन, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई। 

बेबह्र मिसरे को चाहें तो यूँ कर सकती है-
#हमने देखा/है पसीने/में भी गलकर/रात दिन
# आदतें यूँ तो मिलेंगी एक सी लोगों में पर

यह मिसरा ठीक है क्योंकि" पर" यहाँ "किन्तु" के अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है । फिर भी बदलाव चाहें तो में को "की" लिखकर ठीक किया जा सकता है।

Comment by Rachna Bhatia on August 2, 2021 at 11:35am

आदरणीय चेतन प्रकाश जी नमस्कार। हौसला बढ़ाने के लिए आभार। जी, आदरणीय,इन कमियों को दूर करने का प्रयास करती हूँ।सादर

Comment by Rachna Bhatia on August 2, 2021 at 11:33am

आदरणीय अमीरुद्दीन'अमीर'जी नमस्कार।जी

, मुझसे तक़्तीअ ग़लत हो गई है।

देखें

"रात दिन गल कर पसीने में भी हमने देखा है"

यह सही है क्या

दूसरा भी सुधार कर के दिखाती हूँ। सादर

Comment by Chetan Prakash on August 2, 2021 at 9:32am

आदरेया 'निर्मल जी., नमस्कार! ग़ज़ल का अच्छा प्रयास किया है, आपने और विकास यात्रा भी संतोषजनक है! लेकिन किन्हीं बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित करना परम   आवश्यक है! यथा, आदरणीय समर कबीर साहब अनेक बार बता चुके हैं कि  दो सम्बन्ध बोधक अव्यय एक साथ नहीं आ सकते! जैसे शे'र दो का ऊला, " आदतें तो यूँ मिलेगी एक सी लोगों में पर" , यहाँ माननीया, में और पर दोनों समबंध बोधक अव्यय हैं, साथ ही काम दोनों का एक है! अत: एक भर्ती का है, एक ज़रूरी! शे'र न०. ४ में तो आदरणीय समर कबीर साहब 'साथ' के साथ, अन्य अव्यय ग़लत बता चुके हैं! सादर

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