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हमने तो देखा बीज न खेतों में डालकर -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२


शीशा भी लाया आज वो लोहे में ढालकर
बोलो करोगे आप  क्या पत्थर उछाल कर।१।
*
जिन्दा ही दफ्न सत्य जो कल था किया गया
लानत समय  ने  आज  दी  मुर्दा  निकालकर।२।
*
वो बिक  गयी  है  वस्तु  सी  बेहाल भूख से
अब क्या रखोगे बोलिए उस को सँभालकर।३।
*
केवल किसान  जानता  मौसम की मार को
हम ने तो  देखा  बीज  न  खेतों  में डालकर।४।
*
रोटी का मोल  जानते  बचपन  से ही बहुत
माँ ने  खिलाया  खूब  है  पानी  उबालकर।५।
*
काँटों को रखता तेज है उनका स्वभाव ही
तीखे किये वो किसने भला छील छालकर।६।

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by Chetan Prakash on July 31, 2021 at 10:41pm

तरमीम ,  पढ़ें, कृपया  !

Comment by Chetan Prakash on July 31, 2021 at 10:39pm

 पुनश्च,  और, एक  बात, , पाँचवे शे'र का सानी शाब्दिक  तमीम चाहता है । वस्तुत: 'खिलाया ' के स्थान पर पिलाया  होना चाहिए , बंधुवर  !

Comment by Chetan Prakash on July 31, 2021 at 10:32pm

आदाब अच्छी ग़ज़ल हुई,  जनाब लक्ष्मण सिंह मुसाफिर साहब,   ! मतला, आप फिर  देखिए,  मुझे रब्त  का अभाव  लगा  ! सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 31, 2021 at 10:12pm

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति स्नेह  और उत्साहवर्धन केलिए आभार।

Comment by TEJ VEER SINGH on July 31, 2021 at 6:12pm

बेहतरीन ग़ज़ल । हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी । 

रोटी का मोल  जानते  बचपन  से ही बहुत
माँ ने  खिलाया  खूब  है  पानी  उबालकर।५।

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