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ग़ज़ल ( सोचता हूँ आज तक ग़ज़लों से क्या हासिल हुआ..)

(2122 2122 2122 212)

सोचता हूँ आज तक ग़ज़लों से क्या हासिल हुआ
पहले से बीमार था दिल दर्द भी शामिल हुआ

जब तलक घुटनों के बल चलता रहा था ख़ुश बहुत
आ पड़ा ग़म सर पे जब से दौड़ के क़ाबिल हुआ

ज़िंदगी में तुम नहीं थे इक अधूरापन-सा था
जब से आए हो ये लगता है कि मैं कामिल हुआ

चलते-चलते लोग कहते हैं सफ़र आसान है
ज़िंदगानी में सरकना भी बहुत मुश्किल हुआ

वो शरीक-ए-ग़म है अब मैं क्या कहूँ तारीफ़ में
चोट लगती है मुझे वो जब कभी घाइल हुआ

जब कभी आया है सुख भी घर की चौखट पर मेरे
चोरी-चोरी दुख भी 'सालिक' चुपके से दाखिल हुआ

*मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on July 21, 2020 at 11:51am

आदरणीय सालिक गणवीर जी उप्दा ग़ज़ल हुई है मतला और मकता खास तौर पर पसंद आएं  दिली मुबारक बाद हाजिर है 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 21, 2020 at 11:34am

आ. भाई सालिक गणवीर जी सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

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