For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 11-16

पूर्व से आगे ...

ब्रह्मा द्वारा दौहित्रों को आशीर्वाद क्या प्राप्त हुआ, सुमाली मानो मन मांगी मुराद मिल गयी थी। उसकी आँखों के सामने विष्णु के हाथों हुई विकट पराजय से लेकर रावणादि के समक्ष पितामह के आगमन तक की सारी घटनायें जैसे सजीव होकर तैर रही थीं। अब उसका एक ही लक्ष्य था अपना खोया गौरव पुनः प्राप्त करना और इस उद्देश्य की प्राप्ति में पहला सोपान था कुबेर से लंका दुबारा प्राप्त करना।
वह जानता था कि अभी वह शक्ति द्वारा कुबेर को परास्त नहीं कर सकता था किंतु इससे वह निराश नहीं था। रावण सौतेला ही सही कुबेर का भाई था। ऋषि पुलस्त्य और ऋषि विश्रवा के लिये वह उतना ही स्नेह का पात्र था जितना कि कुबेर। वह यही दाँव चलना चाहता था। उसे विश्वास था कि यदि रावण कुबेर के समक्ष सुमाली का दौहित्र होने के नाते लंका पर अपना दावा प्रस्तुत करे और किसी प्रकार निर्णय का अधिकार विश्रवा और पुलस्त्य को सौंप दिया जाये तो निश्चय ही निर्णय रावण के पक्ष में होगा। कुबेर तो सम्पन्न था किंतु रावण को अभी सहयोग की आवश्यकता थी। इसके अलावा रावण और उसके भाई ने जन्म से ही कष्टों में पले थे, किसी भी कारण से सही, यह तथ्य भी उनके पक्ष में जाने वाला था।
उसने अपने कुनबे को तैयार किया और लंका की ओर प्रस्थान कर दिया। प्रस्थान से पूर्व ही उसने अँगूठे के रक्त से रावण का लंकेश्वर के रूप में अभिषक किया। माल्यवान के पुत्र की ओर से यह शंका उठाई गई कि रावण तो उन सबमें बहुत कनिष्ठ है, लंकेश्वर के रूप में उसका अभिषेक उचित नहीं है किंतु सुमाली ने यह कहते हुये सबका मुँह बन्द कर दिया कि लंका पर विजय उनके पौरुष से नहीं रावण के पौलस्त्य होने के कारण मिलेगी।


तीसरे दिन ये लोग लंका में कुबेर के प्रासाद के बाहर थे।
जैसे ही इन्होंने प्रासाद में भीतर प्रवेश करने का प्रयास किया तो द्वारपालों ने रोक दिया -
‘‘ठहरो ! कहाँ घुसे जा रहे हो ?’’
‘‘लोकपाल से मिलना है।’’ रावण ने उत्तर दिया
‘‘लोकपाल से मिलना है।’’ द्वारपाल ने नकल उतारते हुये कहा ‘‘सम्मान से बोलना भी नहीं आता।’’ द्वारपाल की आवाज में धृष्टता थी जो धूम्राक्ष से सहन नहीं हुई वह क्रोध में आगे बढ़ा।
‘‘नहीं !’’ रावण हाथ फैलाकर उसे रोकता हुआ हँसकर द्वारपाल से बोला ‘‘लोकपाल जी से मिलना है द्वारपाल जी ! प्रसन्न !’’
‘‘मुझे चिढ़ाता है। मजा चखाऊँगा तुझे तो ! इस समय महाराज किसी से नहीं मिलते। भाग जाओ। प्रातः आम दरबार के समय आना।’’
‘‘वे हमसे अभी मिलेंगे। यदि अपना भला चाहते हो तो उन्हें सूचना करो कि वैश्रवण रावण आया है।’’ द्वारपाल उसे फिर झिड़कना चाहता था किंतु दूसरे द्वारपाल ने उसे रोक दिया। उसने रावण के मुख से उच्चरित ‘वैश्रवण’ शब्द पर ध्यान दिया था। और इस शब्द ने उस पर चमत्कारी प्रभाव भी डाला था। वह सम्मान के साथ बोला -
‘‘क्या कहा आपने ? वैश्रवण हैं आप, महर्षि विश्रवा के पुत्र ?’’
‘‘क्या एक बार में सुनाई नहीं देता। लोकपाल ने ऐसे ही व्यक्तियों को नियुक्त किया है द्वार की सुरक्षा के लिये ?’’ रावण उपालंभ के स्वर में बाला।
‘‘आप लोग यहीं ठहरिये, अभी सूचना भेजता हूँ।’’ फिर एक साथी को आवाज देता हुआ बोला -
‘‘अरे चतुर जा तो जरा महाराज को सूचना कर दे।’’
सुमाली प्रासाद की भव्यता को मंत्रमुग्ध सा निहार रहा था। कभी यह उसका प्रासाद हुआ करता था। कुंभकर्ण प्रासाद की भव्यता से चमत्कृत खड़ा था। उसकी तो पलकें भी नहीं झपक रही थीं।
‘‘आप महाराज के भ्राता हैं ?’’ पहले वाले द्वारपाल ने जिज्ञासा से रावण से पूछा। अब उसके स्वर में उद्दंडता नहीं सम्मान झलक रहा था।
‘‘हाँ ! तुम्हारे महाराज मेरे बड़े भाई हैं।’’
‘‘आप लोग बैठ जाइये तब तक।’’ द्वारपाल ने एक ओर बनी पीठिकाओं की कतार की ओर इशारा करते हुये कहा।
‘‘नहीं, ऐसे ही ठीक है।’’
‘‘आपको पहले कभी नहीं देखा ?’’ द्वारपाल परिचय घनिष्ठ करना चाहता था। महाराज के भाई और संबंधियों की निगाह में बसने में सदैव लाभ ही रहता है।
‘‘हाँ ! मैं पहली बार आया हूँ। पर तुम्हें इससे क्या ? अपना काम करो।’’ रावण ने उसके उत्साह पर विराम लगा दिया।
कुछ देर सभी मौन खड़े रहे।
तभी सूचना देने गया द्वारपाल का साथी लौटता दिखाई दिया। सबकी उत्सुक निगाहें उसीकी ओर उठ गयीं।
उसने दूर से ही कहा -
‘‘आइये महाराज आप लोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’
सब उसके साथ चल दिये।
कुबेर अतिथि कक्ष के द्वार पर ही मिला। सुदर्शन व्यक्तित्व। ऊँचा कद, बहुमूल्य रत्नों से जड़े स्वर्णिम राजमुकुट के नीचे से झांकते सुदीर्घ, चमकीले, काले केश। बहुमूल्य वस्त्राभूषण। लगता था कि कोई अत्यंत वैभव और सत्ता सम्पन्न व्यक्ति है। उसके साथ महारानी भी थीं। वे भी अपने पति से कम सुदर्शना नहीं थीं। उनका पूरा शरीर जैसे आभूषणों से लदा था।
रावण ने झुककर कुबेर के चरणों में प्रणाम किया। कुबेर ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया। फिर पूछा -
‘‘कुशल से तो हो वत्स ?’’
‘‘जी ! सम्पूर्ण कुशल से।’’
कुबेर के आलिंगन से छूट कर रावण ने महारानी के चरणों में प्रणाम किया। उधर कुंभकर्ण कुबेर से मिल रहा था। महारानी ने भी प्यार से उसके सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया।
कुबेर कुंभकर्ण को भुजाओं में बाँधे हँसते हुये कह रहा था- ‘‘वत्स तुम साथ हो तो सैन्य की आवश्यकता ही नहीं। अकेले ही पूरे सैन्य पर भारी पड़ोगे।’’
‘‘जी ! वो तो है।’’ कुंभकर्ण अपनी प्रशंसा से प्रसन्न था। उसने अपनी भुजाओं की सुदृढ़ मांसपेशियों का प्रदर्शन किया। सब हँस पड़े।
आओ भीतर चलें।
भीतर की भव्यता देख कर तो कुंभकर्ण की आँखें खुली की खुली रह गयीं। यहाँ पर सुमाली भी चमत्कृत था। आन्तरिक सज्जा की शोभा उसके समय से भी बहुत श्रेष्ठ थी। विशाल कक्ष में चारों ओर हाथी दाँत की पीठिकायें पड़ी थीं। मध्य में विशाल स्फटिक का पर्यंक था जिसपर मोटा सा मुलायम गद्दा बिछा था। बहुमूल्य रेशमी चादर पड़ी थी। सभी खिड़कियों पर बहुमूल्य रेशमी पर्दे पड़े थे जिन पर मोटा सोने का काम किया गया था। कुल मिलाकर सब कुछ अत्यंत भव्य था।
सब पीठिकाओं पर बैठ गये तो कुबेर ने प्रश्न सूचक दृष्टि से शेष लोगों की ओर देखा। रावण उसकी निगाह का तात्पर्य समझ गया। बोला -
‘‘भ्राता का परिचय करवा दूँ सबसे।’’
‘‘हाँ ! यह तो आवश्यक है।’’ कुबेर ने उत्तर दिया।
‘‘मातामह सुमाली’’ रावण ने सुमाली की ओर इंगित किया। कुबेर ने झुक कर उन्हें पूरी श्रद्धा से प्रणाम किया। महारानी ने भी उसका अनुसरण किया। फिर कुबेर बोला -
‘‘धन्य भाग्य ! लंका को प्रथमतः बसाने वाले का आज तक नाम ही सुना था। आज दर्शन प्राप्त कर धन्य हो गया। आपके चरणों से पवित्र हो गया यह प्रासाद। देखिये कहीं कोई कमी तो नहीं रह गयी है ? कुबेर ने पूरे मन से देखभाल की है लंका की।’’
कुबेर पूरे सम्मान सूचक ढंग से बोल रहा था किंतु फिर भी सुमाली का नाम सुनते ही उसके चेहरे पर क्षणांश के लिये जो चैंकने के चिन्ह प्रकट हुये थे वे रावण और सुमाली दोनों ने ही लक्षित किये थे।
‘‘और ये सब मेरे मातुलगण ...’’ उसने एक-एक कर नाम लेते हुये सभी का परिचय दिया। कुबेर और फिर महारानी ने सबको प्रणाम किया।
इस बीच परिचारिकाओं ने सबके सामने स्वादिष्ट व्यंजनों के स्वर्ण थाल सजा दिये थे।
‘‘लीजिये ! ग्रहण कीजिये सब लोग। कुबेर आज प्रथम बार अपने मातामह और मातुलों के दर्शन प्राप्त कर कृतकृत्य है।’’
‘‘अरी मंदिरे ! यह क्या ? कुंभकर्ण के सामने भी तूने यह जरा सा थाल रखा है।’’ महारानी सहज हास्य के साथ एक परिचारिका से सम्बोधित हुईं- ‘‘मेरा देवर पहली बार आया है, क्या कहेगा कि भाभी के यहाँ गया और तृप्त भी नहीं हुआ।’’
कुंभकर्ण के चेहरे पर प्रसन्नता की लाली दौड़ गयी। बोला -
‘‘भाभी हो तो ऐसी।’’
जलपान के दौरान ऐसी ही हल्की-फुल्की बातें होती रहीं। सब तृप्त हुये। कुंभकर्ण घर से बाहर अधिकांशतः तृप्त नहीं हो पाता था पर आज वह भी पूर्ण तृप्त हुआ। एक परिचारिका मात्र उसी की सेवा में लगी रही थी। उसके ललाट पर चमक रही स्वेद की बूँदें बता रही थीं कि कितना थक गई थी वह।
जलपान के बाद परिचारिकायें सब सामग्री बटोर ले गयीं। महारानी ने भी कुछ काम का बहाना कर आज्ञा प्राप्त की तो कुबेर ने गंभीरता से वार्ता का सूत्र आरंभ किया -
‘‘वत्स रावण ! आज भाई की याद कैसे आ गयी ?’’
‘‘बस दर्शन की आकांक्षा खींच लाई।’’
‘‘मातामह भी आये हैं, इससे लगता है कि कुछ विशेष ही प्रयोजन है। हम सब तो यही समझते थे कि मातामह कुटुम्ब सहित श्री विष्णु द्वारा ....’’
‘‘मार दिये गये।’’ कुबेर के अधूरे छोड़ दिये गये वाक्य को सुमाली ने हँसते हुये पूरा किया।
‘‘अब क्या कहूँ मातामह, चर्चा तो यही थी चारों ओर।’’
‘‘मुझे ज्ञात है। और मैंने यह भ्रम जान-बूझ कर फैला भी रहने दिया। समझ सकते हो कि इसी में भलाई थी।’’
‘‘जी !’’ कुबेर ने स्वीकार किया। फिर आगे कहा -
‘‘मातामह अब सत्य प्रयोजन बतायें आगमन का।’’
‘‘हाँ ! मुझे भी लगता है बात को घुमा फिरा कर कहते से स्पष्ट कहना ही उचित होगा।’’
‘‘जी ! आपस में कूटनीति भली नहीं होती। स्पष्टता ही श्रेयस्कर है।’’
‘‘तो सुनो। तुम जानते ही हो कि यह लंका हमारी है।’’
‘‘मातामह आपकी नहीं है, हाँ आपकी बसाई हुई अवश्य है।’’
‘‘मैं किसी भी कारण से यदि अपना घर खाली छोड़ कर कुछ दिन के लिये कहीं चला जाऊँ तो आप उस पर कब्जा कर लेंगे। यह तो न्याय नहीं हुआ।’’
‘‘मैंने कब्जा नहीं कर लिया, मुझे पितामह ब्रह्मा ने लंका को फिर से बसाने का निर्देश दिया था वही मैंने किया। आपने भी विश्वकर्मा के द्वारा बनाई हुई लंका पर कब्जा किया था।’’
‘‘आप भूल कर रहे हैं लोकपाल ! मुझसे स्वयं विश्वकर्मा ने ही कहा था लंका में निवास करने को।’’
‘‘इससे क्या फर्क पड़ता है मातामह ? लंका का निर्माण आपने तो नहीं करवाया था। न यह सम्पूर्ण भूमि आपने क्रय की थी। आपको भी यह खाली पड़ी मिली और आपने इसे अपनी राजधानी बना लिया। मुझे भी यह खाली पड़ी मिली और मैंने इसे अपनी राजधानी बना लिया।’’
‘‘अन्तर है लोकपाल ! मैंने विश्वकर्मा से उचित पारितोषिक पर एक नवीन पुरी बसाने का आग्रह किया था। उसने नवीन पुरी बसाने के स्थान पर मुझे यह पुरी दे दी। जबकि आपने इसे खाली देख कर इस पर अनधिकार कब्जा कर लिया। अब मैं चाहता हूँ कि इसे आप मेरे दौहित्र और अपने छोटे भाई को सौंप दें। आप समर्थ हैं, दूसरी पुरी बसा सकते हैं किंतु इसके पास दूसरी पुरी बसाने के संसाधन नहीं हैं।’’
‘‘मातामह ! दोनों स्थितियों में अन्तर है। यदि आप लंका वापस चाहते हैं तो वह संभव नहीं है। लंका मुझे पितामह ब्रह्मा ने दी है। उनके निर्देश पर मैंने इसे अपनी राजधानी बनाया है।
‘‘यदि रावण यहाँ रहना चाहता है तो वह मेरा अनुज है। मैं उसके संरक्षक की हैसियत रखता हूँ। उसका मेरी प्रत्येक वस्तु पर इस नाते सहज अधिकार है। वह यहाँ मेरे अनुज की हैसियत से सदैव निवास कर सकता है। उसके लिये क्या बाधा है। क्या पूरा परिवार एक साथ नहीं रह सकता ? मुझे और मेरी पत्नी दोनों को यदि ये यहाँ रहेंगे तो अत्यंत प्रसन्नता होगी। आपने देखा ही होगा कि इनके आगमन से हम दोनों कितने प्रसन्न थे।’’
‘‘आज अचानक आप इसके संरक्षक हो गये। अभी तक जब आपके इन निरीह भाइयों को संरक्षण की आवश्यकता थी तब आप कहाँ थे ? आज जब ये समर्थ हैं तब आप इनके संरक्षक होने का दावा कर रहे हैं।’’
‘‘मुझसे पहले इनके माता-पिता इनके संरक्षक हैं। ये अपनी माता के संरक्षण में थे तो मैं कैसे इनका संरक्षक होने का दावा कर सकता था ?’’
‘‘आप माता सहित इन्हें अपने पास बुला तो सकते थे।’’
‘‘माता कभी यहाँ आतीं उनका सदैव स्वागत होता। कुबेर स्वार्थी नहीं है मातामह!’’
‘‘ये सब कहने की बातें हैं, लोकपाल ! आपने कभी निमन्त्रित किया होता तो माता आतीं।’’
‘‘आप गलत कह रहे हैं मातामह। माता ने कभी मुझे पुत्रवत स्वीकार करना चाहा ही नहीं। मुझे कभी इनका भाई माना ही नहीं। उन्होंने तो पिता से विवाह आपकी कूटनीति के अनुसार किया था और इसीलिये उन्होंने इन्हें अत्यंत अल्प वयस में ही पिता के पास से आपके पास पहुँचा दिया, क्या मैं गलत कह रहा हूँ।’’
‘‘निस्संदेह गलत कह रहे हैं। आपने यदि कभी मन से कैकसी को मातावत माना होता तो आप उसे अपने पास बुला सकते थे। सत्य तो यह है कि आप कभी उससे या अपने भाइयों से भेंट करने ही नहीं गये। वह जब मुनि विश्रवा के आश्रम में थी तब भी नहीं और जब मेरे यहाँ आ गई थी तब भी नहीं।’’
‘‘मातामह ! ...’’
‘‘मेरी बात पूरी हो जाने दीजिये।’’ सुमाली ने कुबेर को बीच में ही रोकते हुये कहा - ‘‘कैकसी तो आपको कभी भलीभांति जान ही नहीं पाई। आप तो धनपति बनने मे लगे हुये थे। बस औपचारिकता निभाने कई-कई वर्षों बाद आप अपने पिता से भेंट करने चले जाते थे। अब क्योंकि कैकसी भी वहीं थी तो एक भद्र पुरुष की तरह आप उससे भी सम्मान पूर्वक मिल लेते थे। आपने कभी भी उससे, खास उससे मिलना चाहा ही नहीं। वह कैसे अपने पुत्र आपके संरक्षण में दे देती ?’’
‘‘मातामह ! आप मेरे भाइयों को उकसा कर भाइयों की बीच खाई पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं। भाइयों में बैर के बीज रोप रहे हैं। अन्यथा इन्हें मेरे साथ रहने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये। मैं अकेला हूँ यदि ये भी मेरे साथ आ जाते हैं तो हम चार हो जायेंगे। हम मिल कर समस्त्र त्रिलोक को जीत सकते हैं।’’
‘‘उसके लिये मेरे दौहित्रों को आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं है। ये अपने पुरुषार्थ से त्रिलोक विजय करने की सामथ्र्य रखते हैं।’’
‘‘फिर इन्हें त्रिलोक में इस छोटी सी लंका की आवश्यकता क्या है ? क्यों नहीं ये त्रिलोक में जहाँ चाहें अपना राज्य स्थापित कर लेते।’’
‘‘भ्राता वह इसलिये कि लंका मेरे मातामह की है और उनका उत्तराधिकारी होने के नाते इस पर मेरा न्यायिक अधिकार बनता है।’’ इतनी देर से शान्ति से यह सारा वार्तालाप सुन रहे रावण ने अब अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।
‘‘मुझे मेरे पितामह ने लंका सौंपी है। मैंने इतने वर्षों तक इसे अपने पुरुषार्थ से सम्पन्न बनाया है। सबसे बड़ी बात आज इस पर मेरा अधिकार है। तुम छोटे भाई बन कर यहाँ रहना चाहो तो तुम्हारा सदैव स्वागत है। जितना मेरा अधिकार है मैं तुम्हें भी उतना ही अधिकार देने को सहर्ष प्रस्तुत हूँ किंतु मातामह का अधिकार लंका पर मैं स्वीकार नहीं कर सकता। जब तक लंका में उनका राज्य था, लंका उनकी थी आज यह मेरी है।’’
‘‘भ्राता आप भाइयों में विग्रह को न्योता दे रहे हैं। आप समर्थ हैं, आपके पास संसाधन हैं आप दूसरी पुरी बसा सकते है। बसा लीजिये। हम अभी समर्थ नहीं हैं, फिर लंका से मातामह का प्रगाढ़ भावनात्मक नाता है, आप हमें लंका सौंप क्यों नहीं देते ?’
‘‘रावण ! तुम्हारे मातामह के समान ही मेरा भी लंका से भावनात्मक नाता है। इनके नाते के धागे तो पुराने होकर जर्जर हो चुके हैं। वे सहजता से टूट सकते हैं। पर मेरी भावना के धागे तो अभी पूर्ण रूप से सुदृढ़ हैं। यदि मातामह अपने धागे नहीं तोड़ सकते तो मैं कैसे तोड़ दूँ ?
‘‘रही बात अलग पुरी बसाने की तो संसाधन मैं उपलब्ध करा दूँगा, तुम बसा सकते हो नई पुरी। इससे भी भव्य पुरी।’’
‘‘तो आप नहीं मानेंगे, भले ही हम भाइयों में सदैव के लिये स्नेह के स्थान पर द्वेष के रिश्ते पनप जायें ?’’
‘‘तुम समझने का प्रयास क्यों नहीं कर रहे हो वत्स ! मैं तो तुम्हें यहाँ अपने बराबर अधिकार दे कर तुम्हें यहाँ निवास का न्योता दे रहा हूँ। तुम अगर अलग पुरी बसाना चाहो तो उसके लिये भी तुम्हें पूरी सहायता देने को तैयार हूँ तब फिर तुम क्यों हठ पाले हो ?’’
‘‘भाई यह आपकी हठधर्मी है।’’
‘‘क्या ???? स्वयं हठ पर अड़े हो और मुझ पर आरोप लगा रहे हो। यह तो पौलस्त्यों को शोभा नहीं देता।’’
‘‘बस ! बहुत हो गया।’’ रावण के सारे मातुल स्वभाववश क्रोध में आ गये थे किंतु जैसा कि चलते ही सुमाली ने निर्दिष्ट किया था कि इस अभियान का पूरा नेतृत्व रावण करेगा, अपने को जब्त किये बैठे थे। बार-बार उनके हाथ कमर में बँधी तलवार की मूठ तक जाते थे और वे वापस खींच लेते थे। अब वज्रमुष्टि से सहन नहीं हुआ। वह आवेश में खड़ा होकर बोल ही पड़ा - ‘‘तुम युद्ध को निमंत्रण दे रहे हो कुबेर !’’
‘‘मातुल ! बैठ जायें।’’ रावण की आवाज तीखी हो गयी थी। ‘‘ये मेरे अग्रज हैं। मैं किसी को इनके साथ अशिष्टता की अनुमति नहीं दे सकता। आपको भी नहीं।’’
वज्रमुष्टि का आवेश झाग की तरह बैठ गया था। वह चुपचाप अपने स्थान पर बैठ गया। ‘क्या सोच कर पितृव्य ने इस डरपोक को अभियान की कमान सौंप दी है।’
फिर रावण कुबेर से संबोधित हुआ -
‘‘भ्राता ! मातुल की अशिष्टता के लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। अब इनमें से कोई नहीं बोलेगा।’’
‘‘कोई बात नहीं। ये मेरे भी ज्येष्ठ हैं। मैंने उनकी बात का बुरा नहीं माना।’’
‘‘भ्राता ! आपने अभी पिता का जिक्र किया था। क्यों न हम निर्णय उनके ही हाथों में सौंप दें ? वे जो निर्णय दे देंगे वह दोनों ही भाई मान लेंगे।’’ सुमाली ने जो बातें रास्ते में कही थीं उन्हें दृष्टिगत रखते हुये रावण ने बहुत बड़ा दाँव फेंका था। मातामह का विश्वास अगर सच साबित हुआ तो आगे असीमित प्रगति के रास्ते सहज ही खुल जाने थे। ‘किंतु यदि दाँव उल्टा पड़ गया तो ???’ पर अब विचार करने का समय नहीं था। पुरुषार्थी मनुष्य जो हो गया उस पर पछताते नहीं, आगे की सोचते हैं। अपने पुरुषार्थ से बिगड़ी को फिर सँवारने का प्रयास करते हैं।
‘‘उचित है। मैं तैयार हूँ।’’
सुमाली ने एक दीर्घ निःश्वास ली, जैसे उसके सीने से बड़ा भारी बोझ हट गया हो। वह रावण की वाकपटुता से प्रसन्न था। उसे अब भी पूरा विश्वास था कि रावण ने सही चाल चली थी।

क्रमशः

मौलिक एवं अप्रकाशित

- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 746

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 18, 2016 at 3:35pm

शृंखला की छः कड़ियाँ एक साथ ! किन्तु रावण और कुबेर का संवाद इस सामुहिक कड़ी का रोचक पक्ष है. 

बहुत खूब ! कथा की गति सधी हुई है. 

शुभ-शुभ

Comment by Sulabh Agnihotri on July 15, 2016 at 8:55am

आदरणीया ! अगली तीन कड़ियां आ चुकी हैं।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 11:35pm

बहुत  रोचक वाह अगली कड़ी भी पढूंगी हार्दिक बधाई 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"आदरणीय  उस्मानी जी डायरी शैली में परिंदों से जुड़े कुछ रोचक अनुभव आपने शाब्दिक किये…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"सीख (लघुकथा): 25 जुलाई, 2025 आज फ़िर कबूतरों के जोड़ों ने मेरा दिल दुखाया। मेरा ही नहीं, उन…"
Wednesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"स्वागतम"
Tuesday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

अस्थिपिंजर (लघुकविता)

लूटकर लोथड़े माँस के पीकर बूॅंद - बूॅंद रक्त डकारकर कतरा - कतरा मज्जाजब जानवर मना रहे होंगे…See More
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आपके पुनः आगमन की प्रतीक्षा में हूँ "
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय लक्ष्मण भाई ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका हार्दिक आभार "
Tuesday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
Sunday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
Sunday
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय कपूर साहब नमस्कार आपका शुक्रगुज़ार हूँ आपने वक़्त दिया यथा शीघ्र आवश्यक सुधार करता हूँ…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय आज़ी तमाम जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल है आपकी। इतनी सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा है। कुछ शेर अच्छे लगे। बधई स्वीकार करें।"
Sunday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"सहृदय शुक्रिया ज़र्रा नवाज़ी का आदरणीय धामी सर"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service