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ग़ज़ल : वो ज़हर का प्याला है, उठाना ही नहीं था

बह्र : 221   1221   1221   122

वो ज़हर का प्याला है, उठाना ही नहीं था
दुनिया की तरफ़ आपको जाना ही नहीं था

कानों में यहाँ रूई सभी बैठे हैं रख के
ऐसे में तुम्हें शोर मचाना ही नहीं था

खेतों में लहू देख के करते हो शिकायत
हथियार ज़मीनों में उगाना ही नहीं था

ये कौन जगह है कि जहाँ होश में सब हैं
हम रिन्द हैं हमको यहाँ लाना ही नहीं था

ताउम्र उसी शहर में ही भटका किया मैं
रहने को जहाँ कोई ठिकाना ही नहीं था

ऐसे में भला क़द्र मेरी करता वो कैसे
मैं उसका दिवाना हूँ बताना ही नहीं था

ये जीस्त वफ़ादार नहीं, जान गए थे
फिर इससे तुम्हें दिल को लगाना ही नहीं था

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by मोहन बेगोवाल on January 5, 2019 at 9:55pm

   आदरनीय महेंदर जी, बहुत सुंदर ग़ज़ल  सभी अश'आर बहुत उम्दा 

Comment by Samar kabeer on January 5, 2019 at 8:29pm

जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'ये कौन जगह है कि जहाँ होश में हैं सब'

इस मिसरे को यूँ कर लें तो गेयता बढ़ जाएगी:-

'ये कौन जगह है कि जहाँ होश में सब हैं'

'मैं चाहता हूँ उसको, बताना ही नहीं था'

इस मिसरे को यूँ करलें तो गेयता बढ़ जाएगी:-

'मैं उसका दिवाना हूँ बताना ही नहीं था'

'ये ज़िन्दगी है बेवफ़ा जब जान गए थे

फिर बेवफ़ा से दिल को लगाना ही नहीं था'

ये शैर बह्र में है लेकिन इसमें रवानी नहीं है,देखियेगा ।

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