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मारे घूसे जूते चप्पल बदज़ुबानी सो अलग।
और कहते गाँव को मेरी कहानी सो अलग।।

आये साहब वादों की गोली खिलाकर चल दिये।
कह रहे हैं ये हुनर है खानदानी सो अलग।।

है अना गिरवी मरी संवेदनाये भी सुनो।
ज़िंदा है गर मर गया आँखों का पानी सो अलग।।

घोलकर नफ़रत हवा में वो बहुत मग़रूर है।
चाहिए उनको नियामत आसमानी सो अलग।।

लूटकर चलती बनी मुझको अकेला छोड़कर।
अब कहूँ क्या तुम हो दिल की राजधानी सो अलग।।

ढंग से इक काम करने का सलीका है नहीं।।
राम सब से चाहिए अब मेह्रबानी सो अलग।।

2122 2122 2122 212

मौलिक(अप्रकाशित)

राम शिरोमणि पाठक

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Comment by vijay nikore on May 9, 2018 at 8:27pm

गज़ल अच्छी कही है। बधाई।

Comment by ram shiromani pathak on May 9, 2018 at 8:25am

पुनः आभार आदरणीय कबीर जी।।

Comment by ram shiromani pathak on May 9, 2018 at 8:23am

लक्षमण भाई बहुत बहुत आभार आपका

Comment by ram shiromani pathak on May 9, 2018 at 8:23am

सुरेंद्र जी बहुत आभार आपका

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 9, 2018 at 6:22am

आ. राम शिरोमणि जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by नाथ सोनांचली on May 8, 2018 at 10:18am

आद0 राम शिरोमणि पाठक जी सादर अभिवादन। आपसे पहली बार रूबरू हो रहा हूँ। अच्छी ग़ज़ल कही आपने। इस ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by Samar kabeer on May 8, 2018 at 10:15am

बहुत ख़ूब ।

Comment by ram shiromani pathak on May 8, 2018 at 7:44am

कबीर साहब आपसे सहमत हूँ।।अमूल्य सुझाव हेतु आभार।।सुधार कर लिया है

नेमतें भी चाहिए अब आसमानी सो अलग।।।

Comment by ram shiromani pathak on May 8, 2018 at 7:42am

आदरणीय रवि शुक्ल जी हार्दिक आभार

Comment by ram shiromani pathak on May 8, 2018 at 7:42am

आदरणीय तेज बहादुर जी हार्दिक आभार आपका

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