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बंद किताब ...

ठहरो न !
थोड़ी देर तो रुक जाओ
अभी तो रात की स्याही बाकी है
सहर की दस्तक से घबराते हो
प्यार करते हो
और शरमाते हो
कभी नारी मन के
सागर में उतर के देखो
न जाने कितने गोहर
सीपों में
किसी के लम्स के मुंतज़िर हैं
देहाकर्षण के परे भी
एक आकर्षण होता है
जहां भौतिक सुख के बाद का
एक दर्पण होता है
नशवरता से परे
अनंत में समाहित
अमर समर्पण होता है
पर रहने दो
तुम ये बातें न समझ पाओगे
इक देह बन के आओगे
देह में सिमट जाओगे
आश्वासनों में छुपा
इक दर्द दे जाओगे
अपनत्व के शब्दों में गुंथी
इक बंद किताब दे जाओगे
और मैं
इंतज़ार के अंतिम "वरक़" तक
मर मर के जीती रहूंगी
साँसों के अंतिम छोर तक
तुम में
बैठकर
तुम्हें पढूंगी
तुम्हारे शब्दों में
स्वयं को आत्मसात कर
इक शब्द बन जाऊँगी
सच
कितना अच्छा होगा
तुम्हारे आश्वासनों के साथ बैठी
मैं भी
इक
बंद किताब हो जाऊंगी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on November 20, 2017 at 8:16pm

आदरणीय समर कबीर जी , अपने शीरीं अल्फ़ाज़ों से सृजन के भावों को सम्मान देने का दिल से आभार। सर आपके द्वारा इंगित त्रुटि को मैंने संशोधित कर दिया है। आपका तहे दिल से शुक्रिया। यही बारीकियां है जो आपकी पारखी नज़रों की पकड़ में आती हैं। पुनः शुक्रिया सर।

Comment by Sushil Sarna on November 20, 2017 at 8:16pm

आदरणीय रामानुज जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।

Comment by Samar kabeer on November 20, 2017 at 5:38pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत ही शानदार कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'अंतिम वर्क तक' से आपका आशय अगर 'पन्ने'है, तो उसे "वरक़" कर लें ।
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 20, 2017 at 3:20pm

देहाकर्षण के परे भी 
एक आकर्षण होता है 
जहां भौतिक सुख के बाद का 
एक दर्पण होता है 
नशवरता से परे 
अनंत में समाहित 
अमर समर्पण होता है -- वाह ! सच्चे प्रेम को समर्पित सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री सुशील सरना जी 

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