22. 22. 22. 22. 22. 22. 2 
 
 तन्हा शाम बिताते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
 मंज़र में खो जाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
 .
 बारिश से पहले बादल पर अपनी आँखों से,
 कोई अक्स बनाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
 .  
 ज़िक्र किसी का आये तो फूलों से खिलते हो,
 शर्माते सकुचाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
 .
 होटों पर मुस्कान बिना कारण आ जाती है,
 बेकारण झुँझलाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?-
 .
 दरगाहों पर और मन्दिर में शीश झुकाते हो,
 तावीज़े  बँधवाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
 .
 “नूर” तुम्हे अक्सर ख़ुद ही में उलझा देखा है 
 अच्छे शेर सुनाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?      
 .
 निलेश "नूर"
 मौलिक/ अप्रकाशित 
Comment
शुक्रिया आ. महेंद्र जी
कमजोरी तो ब्राह्मण मो बिरहमन लिखना भी मानी जा सकती है आदरणीय ...
कमी खोजने वालों का क्या .....
आ. राघव जी ..
भाषा कोई स्थिर तालाब नहीं है ... एक बहती नदी है जो सतत नए शब्दों की उत्पत्ति करती रहती है..
आप जिसे बेबस शब्द कह रहे हैं वो संस्कृत के वश-विवश का अपभ्रंश मात्र है...
हो सकता है आने वाले वर्षों में बे-कारण भी उतना ही मानी हो जितना बेबस ..अत: मुझे जब भी इस प्रकार के प्रयोग का अवसर मिलेगा, मैं किसी भर्ती के शब्द को डालने की जगह कम प्रचलित शब्द अवश्य लूँगा...
सादर 
शुक्रिया आ. सुरेन्द्र नाथ जी
आ. राघव जी,,
आप जिसे निदा साहब का सबसे कमज़ोर शेर कह रहे हैं अगर वैसा एक भी मैं कह पाया तो स्वयं को धन्य मानूँगा.
रही बात प्रयोगधर्मिता की तो वो पुरानी या नई पीढ़ी की छाप लेकर नहीं आती... किसी ने बीस बार किया हो कोई प्रयोग, मैंने जब पहली बार किया तो मेरे लिये नया अनुभव रहेगा... मेरा प्रयोग खपेगा या व्यर्थ जाएगा ये तो भविष्य तय करेगा..
और व्यर्थ भी रहा तो भी मुझे संतुष्टि होगी क्यूँ की मैं स्वांत: सुखाय ही लिखता हूँ ...
आप ने अपना कीमती वक़्त दिया इसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद ...
आगे भी आप से सुझाव मिलते रहेंगे ऐसी अपेक्षा है..
सादर  
आ. राघव जी,
आप की शैली मुझे मंच पर उपस्थित किसी वरिष्ठ की याद दिलाती है :))..
लेकिन फिर भी आप के द्वारा उठाये गए प्रश्नों का जवाब देना ज़रूरी है..
ग़ज़लगोई चूँकि मेरा पेशा नहीं, शौक है इसलिए इस ग़ज़ल समेत मेरी सभी ग़ज़लें कामचलाऊ ही कही जा सकती हैं..
आप ने जिस बेकारण शब्द को बे-कारण करार दिया है उसे निदा साहब ने कुछ यूँ इस्तेमाल किया है..
.
उससे बिछड़े बरसों बीते लेकिन आज न जानें क्यूँ
आँगन में हँसते बच्चों को बेकारण धमकाया है...
.
शायद निदा साहब ने अकारण शब्द सीखा ही नहीं होगा या सिर्फ छन्द निबाहने के लिये इस शब्द का इस्तेमाल कर लिया होगा..
वाइज भी जब बाज़ार में हर शब्द के कई पर्यायवाची उपलब्ध हों तो कुछ चुनिन्दा शब्द शायद छन्द की मांग को पूरा करने के लिये ही लिये जाते हैं... ये ज़रूरत भी है और ख़ूबी भी...
आप को मिसरे गद्य सामान लगे इसे मैं बड़ी उपलब्धि मानता हूँ क्यूँ कि हर मिसरा एक वाक्य ही है ..जो एक निश्चित मात्रा क्रम को फॉलो करता है ...
मिसरे को छन्द-बद्ध वाक्य भी कहा जा सकता है .....
रही बात ग़ज़लियत की ..तो आपके सुझाए मिसरे में  'ही' भर्ती का शब्द है जिसे मैं सही नहीं मानता ...
ग़ज़ल आप तक पहुँच नहीं सकी इसका खेद है.
सादर 
  
शुक्रिया आ. राघव जी ...
आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा 
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
    © 2025               Created by Admin.             
    Powered by
    
    
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online