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भाई साहब सबकी अर्थी, बस कन्धों पर जानी है-----इस्लाह के लिए ग़ज़ल

22 22 22 22 22 22 22 2
माटी माटी जुटा रही पर जीवन बहता पानी है
स्वार्थ लिप्त हर मनुज हुआ कलयुग की यही कहानी है

मन की आग बुझे बारिश से, सम्भव भला कहाँ होगा
तुम दलदल की तली ढूंढते ये कैसी नादानी है

भौतिकता तो महाकूप है मत उतरो गहराई में
दर्पण कीचड़ युक्त रहा तो मुक्ति नहीं मिल पानी है

बीत गया सो बीत गया क्षण, बीता अपना कहाँ रहा
हर पल दान लिए जाता है समय शुद्ध यजमानी है

स्वर्ण महल अवशेष न दिखता हस्तिनापुर बस कथा रहा।
बाबर वंश भिखारी है अब सबकी यही कहानी है

स्वर्णजड़ित सिंहासन बैठो या झिलगंहिया खटिया पर।
भाई साहब सबकी अर्थी बस कंधों पर जानी है

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 8, 2016 at 10:23am
आदरणीय कल्पना मैम सादर प्रणाम, और हार्दिक धन्यवाद
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 5, 2016 at 8:51pm

इस सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई आदरणीय पंकज कुमार जी |

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 4, 2016 at 2:52pm
आदरणीय बृजेश जी सादर अभिवादन
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 4, 2016 at 2:52pm
आदरणीय बृजेश जी सादर अभिवादन
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 3, 2016 at 2:07pm
आदरणीय श्री पंकज कुमार जी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 3, 2016 at 7:59am
आ.पंकजजी ताटंक छंद पर आधारित विशुद्ध हिन्दी की गजल रचना के लिए बहुत बधाई हो।
गुणी जनों से मेरे कुछ प्रश्न है।
छंद आधारित किसी भी रचना को यदि रदीफ़ और काफिये में बांध देने से उस गजल कहा जा सकता है क्या।
हिन्दी में मात्रा गिनी जाती है पर उन मात्राओं के क्रम के विषय में बहर जैसे निश्चित नियम नहीं है।
"जुटा रही पर" 12 12 22 है जिसे यदि रचना बहर बद्ध है तो हम उसे 22 22 मान सकते हैं क्या।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 2, 2016 at 3:22pm

माटी माटी जुटा रही पर जीवन बहता पानी है
स्वार्थ लिप्त हर मनुज हुआ कलयुग की यही कहानी है.....वाहह आदरणीय वाहह बहुत शानदार गहरे भावों से ओतप्रोत ग़ज़ल हुई...हार्दिक बधाई

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 2, 2016 at 10:05am
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम, ग़ज़ल आपको पसंद आयी, मुझे बहुत अच्छा लगा। किताब मुझे कल शाम में मिली है, अब उसे पढ़ कर आपको बताऊंगा
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 2, 2016 at 10:05am
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम, ग़ज़ल आपको पसंद आयी, मुझे बहुत अच्छा लगा। किताब मुझे कल शाम में मिली है, अब उसे पढ़ कर आपको बताऊंगा
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 2, 2016 at 9:58am
आदरणीय शिज़्ज़ु शकूर सर हार्दिक आभार

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