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बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

ये दिमागी बुखार टेढ़ा है

यही सच है कि प्यार टेढ़ा है

 

स्वाद इसका है लाजवाब मियाँ

क्या हुआ गर अचार टेढ़ा है

 

जिनकी मुट्ठी हो बंद लालच से

उन्हें लगता है जार टेढ़ा है

 

खार होता है एकदम सीधा

फूल है मेरा यार, टेढ़ा है

 

यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये

इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 30, 2016 at 9:51am

वाह आदरणीय वाह अलग ही तरह की ग़ज़ल है...बहुतखूब मुबारक हो ....

Comment by Sushil Sarna on April 28, 2016 at 8:11pm

वाह आदरणीय टेढ़ेपन पर क्या ग़ज़ल लिख डाली। ..... सलाम आपकी कलमगिरी पर सर। ..हार्दिक बधाई स्वीकारें इस सुंदर पेशकश पर। 

Comment by Anuj on April 28, 2016 at 5:28pm

इस आचार का स्वाद ही कुछ और है...

बधाई हो धर्मेन्द्र जी इस बांकपन के लिए 

Comment by नादिर ख़ान on April 28, 2016 at 1:09pm

खार होता है एकदम सीधा

फूल सा मेरा यार, टेढ़ा है वाह आदरणीय धर्मेंद्र जी लाजवाब प्रस्तुति ...  

Comment by Ravi Shukla on April 28, 2016 at 12:29pm

आदरणीय धर्मेन्‍द्र जी इस निराले अंदाज के लिये बधाई स्‍वीकार करें । 

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