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जलते तो है सभी

पर जलने का भी होता है

एक ढंग, एक कायदा,

एक सलीका

जब मै किसी दिए को

किसी निर्जन में

जलते देखता हूँ निर्वात   

तब समझ पात़ा हूँ

कि क्या होता है

तिल–तिल कर जलना,

टिम-टिम करना 

घुट-घुट मरना

और तब मुझे याद आती है

मुझे मेरी माँ

जीवनदायिनी माँ 

सब को संवारती

खुद को मिटाती माँ !

(अप्रकाशित व् मौलिक )

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Comment

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Comment by Chhaya Shukla on September 10, 2015 at 6:37pm

पंक्ति है -

और तब मुझे याद आती है

मुझे मेरी माँ

जीवनदायिनी माँ 

सब को संवारती

खुद को मिटाती माँ !

Comment by Chhaya Shukla on September 10, 2015 at 6:36pm

बहुत सुंदर रचना आदरणीय
अंतिम पंक्तियाँ हर पाठक महसूसेगा |
हार्दिक बधाई !
सादर नमन !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 10, 2015 at 6:26pm
वाह आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर बहुत बहुत बधाई इस सुंदर रचना के लिये
Comment by Shyam Narain Verma on September 10, 2015 at 5:48pm

अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई 

सादर

Comment by Harash Mahajan on September 10, 2015 at 12:28pm
आदरणीय गोपाल जी बेहद मार्मिक अहसास । माँ की पीड़ा का सूंदर चित्रण । इस प्रतुति पर ढेरों बधाई । सादर ।

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