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ग़ज़ल: जिंदगी जैसे परायी हो गयी.

पाँव में खुद के बिवाई हो गयी.

आदमी तेरी दुहाई हो गयी.

 

वायु पानी भी नहीं हैं शुद्ध अब,

सांस लेने में बुराई हो गयी.

 

बारिशों का दौर सूखा जा रहा.

मौसमों की लो रुषायी हो गयी.

 

आपदाएं रोज़ होतीं हर कहीं,

रुष्ट अब जैसे खुदाई हो गयी.

 

काट डाले पेड़ सब मासूम से,

जंगलों की तो सफाई हो गयी.

 

काटती है पैर खुद अपने भला,

देखिये आरी कसाई हो गयी.

 

पेड़ दिखते थे जहाँ पर गाँव में,

आज चिमनी लो हवाई हो गयी.

 

एक रोपे पौध दूजा काटता,

जिन्दगी जैसे परायी हो गयी.     

.

**हरिवल्लभ शर्मा दि. 29.09.2014

 (मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by gumnaam pithoragarhi on September 30, 2014 at 5:08pm

waah sir ji khoob gazal hui hai badhai ......

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 30, 2014 at 4:17pm

वायु पानी भी नहीं हैं शुद्ध अब,
सांस लेने में बुराई हो गयी.
आपदाएं रोज़ होतीं हर कहीं,
रुष्ट अब जैसे खुदाई हो गयी.
सुन्दर ग़ज़ल बनी , आदरणीय हरिबल्लभ शर्मा जी , बधाई।

Comment by harivallabh sharma on September 30, 2014 at 3:10pm

आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपका हार्दिक आभार..आपने प्रोत्साहित किया.

Comment by Shyam Narain Verma on September 30, 2014 at 1:21pm

इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by harivallabh sharma on September 30, 2014 at 12:58pm

बहुत आभार आदरणीया MAHIMA SHREE जी ग़ज़ल पर आपका अनुग्रह मिला .

Comment by MAHIMA SHREE on September 30, 2014 at 12:52pm

एक रोपे पौध दूजा काटता,

जिन्दगी जैसे परायी हो गयी.  ..बेहद उम्दा हार्दिक बधाई आपको आ. वल्लभ जी    

.

Comment by harivallabh sharma on September 30, 2014 at 12:30pm

आदरणीय Pawan Kumar जी आपका हार्दिक आभार आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया का.बहुत धन्यवाद.

Comment by Pawan Kumar on September 30, 2014 at 12:05pm

एक रोपे पौध दूजा काटता,

जिन्दगी जैसे परायी हो गयी.

सुन्दर प्रस्तुति, वर्तमान स्थिति का गम्भीरता से वर्णन किया है आपने
आदरणीय, सादर बधाई!

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