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फिर वही कहानी “नारी व्यथा”....

फिर वही कहानी “नारी व्यथा”

आज फिर सुर्ख़ियों में पढ़कर एक नारी की व्यथा,
व्यथित कर गयी मेरे मन को स्वतः
नारी के दर्द में लिपटे ये शब्द संजीव हो उठे हैं
इस समाज के दम्भी पुरुष
कभी किसी दीवार के पार उतर के निहारना
नारी और पुरुष के रिश्ते की उधडन नजर आएगी तुम्हे
कलाइयों को कसके भींचता हुआ, खींचता है अपनी ओर
बिस्तर पर रेंगते हुए, बदन को कुचलता है
बेबसी और लाचारी में सिसकती है,
दबी सहमी नारी की देह पर ठहाकों से लिखता है,
अपने समय की कब्र में, एक कटुता का रिश्ता
अपने जख्मों को निहारती
लहुलुहान रिश्तों को जेहनी गुलामी का नाम देकर
सहलाती है, पुचकारती है, दर्द में बिन आंसुओं के रोती है
जिन्दगी भर उस गुलामी को सहेजती है, ऐ खुदा तेरी बनाई ये नारी.....
माथे की बिंदी से पाँव के बिछुओं तक
में लिखती हैं पुरुष का नाम
चूड़ियों का कहकशा, जर्द आँखों की जलन
बेबसी कहीं विलीन क्यों नहीं होती 
पल पल ठंडी राख सा होता उसका बदन,
जलते हुए अक्षरों का दर्द मिटा नहीं पाता
कि फिर लिख देता है पुरुष अपने बल से
नारी की देह पे क्रूरता की परिभाषा
बाजुओं की पकड़ से निस्तेज होती रूह,
कुचल देती है नारी की संवेदनाओं को
लूट के अस्मत, ये व्यभिचारी खेलते हैं भावनाओं से,
तड़फती कोख का दर्द लिए
निरीह प्राणी की तरह जीवन जीती है, ऐ खुदा तेरी बनाई हुई नारी.........

.

सुनीता दोहरे ...

मौलिक एवम अप्रकाशित....

Views: 940

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 2, 2014 at 4:53pm

अहम् ब्रह्मास्मि ..अहम् सर्वास्मी .....के भाव से दम्भी पुरुष द्वारा सदा से नारी के  ऊपर शारीरिक मानसिक बर्बरता के निशाँ हैं जो मिटते नहीं हैं और आज तो और भयावही  हो गए हैं न जाने कब वक्त बदलेगा ??इस दर्द की असह्य पीड़ा को जो आपने अपनी रचना में उकेरा है निःसंदेह प्रभावित करती है,दिल को छूती है |बहुत- बहुत बधाई आपको सुनीता जी  

Comment by sunita dohare on July 2, 2014 at 4:36pm

vijay nikore जी, आपसे प्रोत्साहन पाना एक पुरस्कार है ! सादर नमस्कार !!!!

Comment by sunita dohare on July 2, 2014 at 4:35pm

गीतिका 'वेदिका' जी , आपका बहुत -बहुत धन्यवाद .... सादर प्रणाम !

Comment by sunita dohare on July 2, 2014 at 4:32pm

Vijay Prakash Sharma जी , आपका बहुत -बहुत धन्यवाद .... सादर प्रणाम !!!

Comment by sunita dohare on July 2, 2014 at 4:31pm

डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , सर, आपका बहुत -बहुत धन्यवाद .... सादर प्रणाम 

Comment by vijay nikore on July 2, 2014 at 11:14am

//कि फिर लिख देता है पुरुष अपने बल से
नारी की देह पे क्रूरता की परिभाषा
बाजुओं की पकड़ से निस्तेज होती रूह,
कुचल देती है नारी की संवेदनाओं को//

सामयिक कटु सच्चाई का वर्णन करती , नारी की वेदना पर  इस प्रभावशाली रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई, आदरणीया।

Comment by वेदिका on July 2, 2014 at 12:50am
सजीव चित्रण! मन व्यथित हो उठता है ऐसे घटनाक्रम से परिचित होकर। क्या कभी मुक्ति मिलने वाली है इन अत्याचारों से नारी को?
सादर
Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 1, 2014 at 3:28pm

हम अपने द्वारा बनाये गए पत्थर /मिट्टी /कागज/गोबर/सुपारी/तक के भगवान को दिन-रात पूजने में लगे रहते हैं पर भगवान की बनाई सर्वोत्तम मूर्ती -स्त्री को क्यों दे देते हैं जीवन की व्यथा?
सुन्दर रचना के लिए बधाई.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 1, 2014 at 11:40am

नारी पीड़ा की सजग अभिव्यक्ति है i  सुन्दर i

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