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ग़ज़ल- ज़िंदगी क्यूँ तेरा पता ढूँढता हूँ !!

बहर - 2122 / 1212 / 2122 

रेत पर किसके नक्शे पा ढूँढता हूँ !
ज़िंदगी क्यूँ तेरा पता ढूँढता हूँ !!

किस ख़ता की सज़ा मिली मुझको ऐसी 
माज़ी में अपने ,वो ख़ता ढूँढता हूँ !!

य़क सराबों के दश्त में खो गया मैं
अब निकलने का रास्ता ढूँढता हूँ !!

दौरे गर्दिश में संग ,गर चल सके जो
कोई ऐसा मैं हमनवा ढूँढता हूँ !!

रौशनी थी मुझे मयस्सर कब आखिर
फिर भी क्यूँ कोई रहनुमा ढूँढता हूँ !!

.

चिराग़ [June 28,2014]

पूर्णतः मौलिक एवम् अप्रकाशित

Views: 884

Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 4:16am

किस ख़ता की सज़ा मिली मुझको ऐसी 
माज़ी में अपने ,वो ख़ता ढूँढता हूँ !!.. .  वाह !

दाद कुबूल करें

Comment by Santlal Karun on July 4, 2014 at 5:18pm

केडिया जी, ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए सहृदय साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 1, 2014 at 9:32am

आ0 भाई चिराग जी बेहतरीन गजल हुई है ।हार्दिक बधाई स्वीकारें ।

Comment by बृजेश नीरज on July 1, 2014 at 7:26am
अच्छी ग़ज़ल। आपको बधाई।
Comment by अरुन 'अनन्त' on June 30, 2014 at 5:51pm

केदिया चिराग भाई अच्छी ग़ज़ल कही है आपने मेरी ओर से बधाई स्वीकारें. प्रयासरत रहिये आपसे और बेहतर कहन की अपेक्षा है.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 2:00pm

आदरणीय चिराग भाई , मै अपनी बिना सोचे समझे दिये सलाह के लिये शर्मिन्दा हूँ , आपभी रोकियेगा नही शर्मिन्दा होने से  ॥ सच है कि मै ढूँढता के आ को काफिया मान बैठा था । कचरे मे डालिये मेरी सलाह को । सादर ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 30, 2014 at 11:14am

खेद और क्षमा के साथ मैं गिरिराज जी की बात का समर्थन वापस लेती हूँ ,वैसे उनके कहने के मकसद से प्रभावित होकर काफिया पर ध्यान नहीं दिया,अब आपके कहने पर गौर किया सच है यहाँ सहर आ ही नहीं सकता ,आ० गिरिराज जी भी यही गलती कर बैठे शायद ,ढूँढता को काफिया और हूँ को रदीफ़ समझ बैठे ,एक बार फिर से इस शानदार ग़ज़ल की बधाई 

Comment by Kedia Chhirag on June 30, 2014 at 11:06am

आप सबने जो स्नेह और प्यार दिया उसके लिये मैं तहे दिल से आप सबका शुक्रगुज़ार हूँ ...गिरिराज जी आपके सुझाव निस्संदेह बहुत ही उम्दा है लेकिन एक दिक्कत ये है की ग़ज़ल में "आ" काफिया मुंसलिक किया है ..जैसे नक़्शे पा ,पता ,खता ,रास्ता ,हमनवा -ऐसे में रहनुमा हमकवाफी होता है इसलिए "सहर ढूँढता हूँ"ये ग़ज़ल में जा नहीं रहा ...वैसे शेर ए आखिरी में ये कहना चाहा था ..
रौशनी थी मुझे मयस्सर कब आखिर

फिर भी क्यूँ कोई रहनुमा ढूँढता हूँ !!

यहाँ मैंने रौशनी को पथप्रदर्शक के रूप में लिया है ...यानि राहें अँधेरी हैं ...जहाँ पथप्रदर्शन को रौशनी चाहिए ...यहाँ गुरु या उस्ताद या रहनुमा के लिये रौशनी की उपमा दी है ..और इस लिये मिसरा ए उला में रहनुमा का काफिया बाँधा है...जिन्दगी में पहली बार ग़ज़ल कहने की गुस्ताखी की इसलिए शायद शेर अन्तर्निहित को स्पष्ट करने में समर्थ नहीं हुआ ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 29, 2014 at 4:27pm

चिराग जी बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई ,आ० गिरिराज जी के सुझाव का मैं भी समर्थन करती हूँ |आपको ग़ज़ल की बधाई |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 29, 2014 at 12:03pm

आदरणीय चिराग भाई , अच्छी गज़ल कही है , आपको दिली बधाइयाँ ।

अंतिम शेअर मे दोनो मिसरों में मै सम्बंध  नही बैठा पाया , अगर ऐसा कहें तो --

रौशनी थी मुझे मयस्सर कब आखिर
फिर भी क्यूँ ,मै कोई सहर ढूँढता हूँ !!   ---- शायद अच्छा लगे । सोचियेगा ॥

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