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खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं ……

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं ……

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को कैसे बुलाऊँ

पल-पल ..तेरी राह निहारूं
एकांत पलों में तुझे पुकारूं
जीने की कोई आस बता दे
किस मूरत से .नेह लगाऊं

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को .कैसे बुलाऊँ

भोर व्यर्थ मेरी .साँझ व्यर्थ है
तुझ बिन मेरी प्यास व्यर्थ है
अंबर के घन .कुछ तो कह तू
कैसे नयन का ...नीर छुपाऊँ

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को .कैसे बुलाऊँ

तड़पत-तड़पत .रैन बिताऊं
रुष्ट पलों से तन्हा बतियाऊं
नन्हे जुगनू .मुझको बता दे
स्मृति से उन्हें कैसे भुलाऊँ

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को .कैसे बुलाऊँ

पुष्प बिना तो शूल व्यर्थ है
जीने का हर उसूल व्यर्थ है
विरह पलों को ...देते सांसें
मधु स्वरों को कैसे भुलाऊँ

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को कैसे बुलाऊँ


सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by coontee mukerji on June 1, 2014 at 12:35pm

विरह भाव को दर्शाते बहुत ही सुंदर रचना है....

पुष्प बिना तो शूल व्यर्थ है
जीने का हर उसूल व्यर्थ है
विरह पलों को ...देते सांसें
मधु स्वरों को कैसे भुलाऊँ

खुद रूठूँ और खुद मन जाऊं
प्रीतम तुझ को कैसे बुलाऊँ.......सादर.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 1, 2014 at 12:15pm

भाव  सहेजे है जो अपने

वो बिल्कुल लगते है सपने

इन सपनो में  मै खो जाऊं 

या सपनो का ब्बाहर आऊं

            खुद रूठूँ  और खुद मन जाऊं i

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