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ग़ज़ल - आसमानों को संविधान भी क्या // --सौरभ

मिसरों का वज़न - २१२२  १२१२  ११२/२२

 

रौशनी का भला बखान भी क्या !
दीप का लीजिये बयान भी, क्या.. ?!
 
वो बड़े लोग हैं, ज़रा तो समझ--  
उनके लहज़े में सावधान भी क्या !
 
चाँद बस रौंदता है तारों को
आसमानों को संविधान भी क्या !

 

आपसी गुफ़्तग़ू में आईने
पूछते हैं, 'कटी ज़ुबान भी क्या' ?
 

फिर बदन में जो गुदगुदी सी हुई
भूख भरने लगी उड़ान भी क्या ?
 
पंच-परमेश्वरों की धरती पर
हो गये आज के प्रधान भी क्या !
 
बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ  
था हवादार ये मकान भी क्या ?
 
क्यों न हम छूट के निभा ही लें
हर दफ़ा ये लहू-लुहान भी क्या ?

**************

--सौरभ

(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 1378

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 17, 2013 at 1:13am

हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय श्याम नारायण जी

Comment by ram shiromani pathak on December 17, 2013 at 12:10am

बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ
था हवादार ये मकान भी क्या ? बहुत खूब आदरणीय
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय सौरभ जी। ....... बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by कल्पना रामानी on December 16, 2013 at 11:43pm

आदरणीय सौरभ जी, बहुत ही उम्दा गजल कही आपने हर शे'र सटीक और लाजवाब,बहुत बहुत बधाई आपको

ये दो शे'र  विशेष पसंद आए

आपसी गुफ़्तग़ू में आईने
पूछते हैं, 'कटी ज़ुबान भी क्या' ?

बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ  
था हवादार ये मकान भी क्या ?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 16, 2013 at 8:35pm

आदरणीय सौरभ सर आपकी ग़ज़ल हमेशा मौजूदा समस्याओं पर प्रहार करने वाली होती है ये भी एक बेहतरीन रचना है दिली दाद कुबूल करें,

//बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ  
था हवादार ये मकान भी क्या ?//

ये शे'र खास पसंद आया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 16, 2013 at 6:23pm

आदरणीय सौरभ भाई , बहुत सुन्दर गज़ल कही है आपने , हर शेर कामयाब हैं ॥ बहुत बहुत बधाइयाँ स्वीकार करें ॥

बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ  
था हवादार ये मकान भी क्या ?
 
क्यों न हम छूट के निभा ही लें
हर दफ़ा ये लहू-लुहान भी क्या ? ------ लाजवाब शे र  , ढेरों दाद  इनके लिये ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2013 at 5:48pm

आदरणीय सौरभ जी

सभी अशआर एक से एक बेहतर  और आखिर में चुनौती -

क्यों न हम छूट  के निभा ही लें,

हर दफा ये लुहुलुहान  भी क्या ?

शब्दातीत  i श्रीमन i

Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on December 16, 2013 at 5:41pm

क्या ही शानदार गजल हुई है आदरणीय सौरभ भईया...  
शेर दर शेर बस वाह!! वाह!! वाह!!

चाँद बस रौंदता है तारों को
आसमानों को सम्विधान भी क्या!

बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ  
था हवादार ये मकान भी क्या ?

हृदय से सादर बधाई स्वीकारें....

पढ़ते हुये दिल से निकाल ही गया....

क्या गजल से हुआ हूँ वाबस्ता,
वो मिला दिल को इत्मिनान भी क्या!

Comment by coontee mukerji on December 16, 2013 at 5:13pm

सौरभ जी हर शेर काबीले तारीफ़ है.सादर.

Comment by Meena Pathak on December 16, 2013 at 4:33pm

बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ  
था हवादार ये मकान भी क्या ?
  
क्यों न हम छूट के निभा ही लें 
हर दफ़ा ये लहू-लुहान भी क्या ?.............क्या बात है सर जी !!

 बेहतरीन गज़ल हुई | बहुत बहुत बधाई आप को, सादर 

Comment by Shyam Narain Verma on December 16, 2013 at 3:39pm
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..

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