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रामभरोसे - (रवि प्रकाश)

थोथे सपने
उथली नींदें
स्वप्नलोक भी
रीता है।

सारा जीवन
कुरुक्षेत्र है
भूख हमारी
गीता है।

अट्टहास कर
रावण नाचे
बंधन में फिर
सीता है।

किसने सागर
पी डाला है
किसने अंबर
जीता है।

हम क्या जानें
वक़्त हमारा
रामभरोसे
बीता है।

मौलिक व अप्रकाशित।

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 3, 2013 at 9:08am

बहुत सुन्दर और प्रभावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री रवि प्रकाश जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on October 3, 2013 at 8:57am

आदरणीय रवि जी ! सुंदर भाव, सुंदर शब्द-चयन, सुंदर प्रवाहमयी इस रचना के लिये बहुत-बहुत बधाइयाँ......

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 2, 2013 at 10:02pm

लगता है राम भरोसे रहने के कारण ही रचना इतनी शान्रदार  हुई बधाई  रवि भाई ।

Comment by Sushil.Joshi on October 2, 2013 at 9:50pm

वाह आदरणीय रवि भाई.... शानदार प्रवाह के साथ भावों का सुंदर समन्वय.....बधाई हो...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2013 at 9:41pm

वाह वाह !!! आदरणीय रवि प्रकाश भाई , लाजवाब रचना , हर बन्द शानदार हैं !! बहुत बहुत बधाई !!

Comment by MAHIMA SHREE on October 2, 2013 at 9:02pm

वाह ... बहुत ही सुंदर ...अपने ही प्रवाह में बहा ले गयी .. बधाई

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