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मैं देव न हो सकूंगा

सुनो ,

व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !

अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?

बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !

मैं देव न हुआ !

 

सुनो ,

प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !

तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !

मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !

तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !

मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !

(मैं अगला गीत “अनुकूलन” पर लिखूंगा !)

 

सुनो ,

अंतरंग क्षणों में तुम्हारा मुस्कुराना सर्वश्व माँगता है !

प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देता हूँ मैं भी !

तुम्हारी और मेरी मुस्कान को समानार्थी समझती हो तुम -

जबकि संवादों में अंतर है -“ही” और “भी” निपात का !

संभवतः अल्प है तुम्हारा व्याकरण ज्ञान -

तुम्हरी प्रबल आस्था के सापेक्ष !

 

सुनो ,

मैं देव न हो सकूंगा !

मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील !

मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद !

 

सुनो ,

मुझसे प्रेम करना छोड़ क्यों नहीं देती तुम ?

.

.

.

.

...................................................... अरुन श्री !
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 12, 2013 at 12:15pm

 अर्ध्य से पहले कसौटी पर परखे, क्या पत्थर नम हो सकेगा ? मन को झकझोर दिया रचना ने | बहुत बधाई श्री अरुण श्रीवास्तव जी 

Comment by Arun Sri on September 12, 2013 at 11:15am

वंदना मैम , हार्दिक धन्यवाद आपका !

Comment by Arun Sri on September 12, 2013 at 11:14am

वीनस सर , मैं कहाँ कुछ लिखता हूँ ! वो तो कविताएँ आ जाती हैं मेरे पास ! फिर उनके प्राकट्य का माध्यम बनना पड़ता है ! अब जब इसमें मेरा कोई "हाथ" नहीं तो कोई आक्षेप भी नहीं होना चाहिए मुझपर ! सब अपनी जिम्मेदारी पर पढ़ें कविता !  :-)))))))))))))
आप जैसे पारखी की सराहना ने बहुत बल दिया ! हार्दिक आभार !

Comment by Arun Sri on September 12, 2013 at 11:09am

गीतिका वेदिका मैम , रचना से आपका ऐसा जुडाव मेरे लिए हर्ष का विषय है ! धन्यवाद !

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 11, 2013 at 10:56pm

आह!!! अहा!!! निःशब्द कर दिया गज़ब की प्रस्तुति प्रस्तुत की है आपने आदरणीय अरुन भाई जी मन प्रसन्न हो गया पढ़कर हृदयतल से ढेरों ढेरों बधाइयाँ भाई जी

Comment by ram shiromani pathak on September 11, 2013 at 8:46pm

बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !

मैं देव न हुआ !////अनुपम/गागर में सागर   ///हार्दिक  बधाई  आपको आदरणीय भाई अरुण जी //सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 11, 2013 at 7:22pm

अद्भुत.... सीधे चिंतन की परतों को भेद हृदय तक पहुँच झकझोरती रचना 

हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2013 at 3:05pm
आदरणीय अरुण भाई , बेहतरीन रचना , पढ के मौन हो गया हूँ ! बहुत बधाई !!
Comment by विजय मिश्र on September 11, 2013 at 12:59pm
कितनी सुंदर रचना ,ध्येय को टोकती -फटकारती मगर चुमकारती हुई सहज ही समाप्त हो जाती है ! 'भी ' और 'ही ' का प्रभावबोध मन को हीला गया . एक गंभीर चिंतन का आभास कराती है . अनेक बधाई अरुन श्री. जी .
Comment by vandana on September 11, 2013 at 6:23am

एकदम परिपक्व .....गज़ब की रचना है सर 

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