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जानती हूँ
या कहो
बखूबी समझती हूँ
तुम्हारे चुपचाप रहने का सबब
हमारे बीच समझ का
जो अनकहा पुल है
कभी सच्चा लगता है और
कभी दिवास्वप्न सा
दुविधा की कई बातें हैं
जज्बातों की कई सौगाते भी हैं
जो अकेले बैठ के
अपने मन मंदिर में
कोमल अहसासों से पिरोयें हैं
साझा करने को कभी
पुल के इस पार तो आओ
दो बातें तो कर जाओ
जानती हूँ तुम्हें
या नहीं जानती की
उलझन तो सुलझा जाओ

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 6, 2012 at 12:25am

जानती हूँ तुम्हें
या नहीं जानती की
उलझन तो सुलझा जाओ 

इन पंक्तियों में बसा हुआ ’काश’ विश्वास को कितना संतुष्ट करता हुआ है !  वाह !!

आपको एक लम्बे अंतराल के बाद इस मंच पर पुनः देखना सुखद लगा है, महिमाजी.

Comment by नादिर ख़ान on December 5, 2012 at 5:22pm

साझा करने को कभी 
पुल के इस पार तो आओ
दो बातें तो कर जाओ 
जानती हूँ तुम्हें
या नहीं जानती की 
उलझन तो सुलझा जाओ

सुंदर अभिव्यक्ति महिमा जी 

क्या कहने........

 

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