मैं नन्ही सी चिड़िया...भरती हूँ आज खुले आसमान में लम्बी से लम्बी उड़ान l याद है मुझे आज भी सर्द ठिठूरी कुहासे भरी वो गीली गीली सी सुबह, जब अपनी ही धुन में मस्त, मिट्टी की सौंधी सी खुशबू में गुम मैं फुदक रही थी एक पगडंडी पर l नम घास की गुदगुदाती छुअन मदमस्त कर रही थी मुझे और मैं अपनी ही अठखेलियों से आह्लादित चहक रही थी l
अचानक गली के आवारा भूखे कुत्तों के झुण्ड में से एक कुत्ते नें झपट कर दबोच लिया था मुझे अपने राक्षसी जबड़ों में....बहुत फढ़फ़ढ़ाये थे मैंने अपने पंख, उस मौत के आगोश से बहार निकलने को... एक बार तो गिर भी गयी थी मैं उस राक्षस के मुख से... सम्हल भी न पायी थी कि पुनः दबोच लिया था उसने मुझे अपने जबड़ों में...
उफ़ ! क्या मंज़र था , ज़िंदगी और मौत की जंग का ?मेरी धड़कन बेतहाशा दौढ़ रही थी..., साँसे बहुत तेज़ चल रही थीं... शायद रुकने ही वाली थीं..., पंख ज़ख़्मी हो गए थे..., एक पैर भी टूट गया था...,सारा खून सूख चुका था..., नसें भी जम सी गयी थी... और पैने दाँतों के निशान, शायद आज तक मेरे फरों की ओट मैं छुपे हैं..l
तभी एक साधारण दिखने वाली लडकी...एक बूँद ज़िंदगी के लिए मेरी जंग को देख, अपनी किताबें फैंक, वहीं पड़ा एक पत्थर उठा बेतहाशा दौढ़ पड़ी उस कुत्ते के पीछे.l सारे कुत्ते जोर जोर से भौंकने लगे थे, यहाँ तक कि वो सुबह ही आतंकित हो गयी थी दिल दहला देने वाले कुत्तों के शोर से l पर भौंकने की लत से मजबूर कुत्ते नें जैसे ही भौंकने को जबड़ा खोला, मैं नीचे गिर पड़ी.... l
थोड़ी देर तक खड़े रहे कुत्ते मुझको और उस मासूम लड़की को घेरे, फिर भौंकते भौंकते हार कर भाग गए और मैं डरी, सहमी, घायल प्राण लिए, ज़ख़्मी पंख लिए, पड़ी रही वहीं पगडंडी पर..... अब तो टूटा पैर लिए फुदक भी नहीं पा रही थी l
तभी बड़े दो कोमल हाथ, जिन्होंने मुझे समेट लिया हथेलियों के नन्हे घरोंदे में, और फिर से उड़ने के काबिल बनाया .....
आज भी दौड़ता है उन हाथों के संरक्षण का संजीवनी सा स्पर्श मेरी रगों में और मैं उड़ जाती हूँ विस्तृत आसमान में,..........सोचते हुए " क्यों खोजता हैं इंसान ईश्वर को ऊपर आसमान में, जबकि वो तो नीचे ही है, उन्ही के बीच, जाने कहाँ किस रूप में...!”
Comment
बचपन में सिद्धार्थ की कहानी पढ़ी थी याद हो आई सुन्दर और मार्मिक भावों की सशक्त रचना हार्दिक बधाई !!
क्यों खोजता हैं इंसान ईश्वर को ऊपर आसमान में, जबकि वो तो नीचे ही है, उन्ही के बीच, जाने कहाँ किस रूप में...!”
जी बिल्कुल सही कहा आपने।
भगवान कहीं और नही यहीं है। बस हम पहचान नही पाते।
शब्दों की खूबसूरती इस रचना को और खूबसूरत बना रही है।
डाक्टर साहिबा नमस्कार,
बधाई इस कहानी के लिए | बहुत साधारण शब्दों में एक बेजुबाँ की आत्म कथा लिखी है | भाव विभोर कर दिया |
आदरणीय प्राची जी, सादर.
आपकी यह रचना bhaav विव्हल कर gayi. antim लाइने gajab की हैं. बधाई.
तभी बड़े दो कोमल हाथ, जिन्होंने मुझे समेट लिया हथेलियों के नन्हे घरोंदे में, और फिर से उड़ने के काबिल बनाया .....
आज भी दौड़ता है उन हाथों के संरक्षण का संजीवनी सा स्पर्श मेरी रगों में और मैं उड़ जाती हूँ विस्तृत आसमान में,
डॉ प्राची जी बहुत सुन्दर ..काश ऐसा ही हो सब का मन उस जीवन बचाने वाली बाला सा ..सब प्रेम करना सीख जाएँ.. प्रभु हम सब में ही तो हैं ...दुनिया प्यारी हो जाये ..
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