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ग़ज़ल (वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी)

फ़ाइलुन -फ़ाइलुन - फ़ाइलुन -फ़ाइलुन
2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2


वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी 

रोज़ मुझपे क़हर बनके गिरने लगी

रोज़ उठने लगी लगी देखो काली घटा
तर-बतर ये ज़मीं रोज़ रहने लगी

जबसे तकिया उन्होंने किया हाथ पर
हमको ख़ुद से महब्बत सी रहने लगी

एक ख़ुशबू जिगर में गई है उतर
साँस लेता हूँ जब भी महकने लगी

उनकी यादों का जब से चला दौर ये
पिछली हर ज़ह्न से याद मिटने लगी

वो नज़र से पिला देते हैं अब मुझे
मय-कशी की वो लत साक़ी छुटने लगी

अब फ़ज़ाओं में चर्चा  यही आम है
सुब्ह से ही ये क्यूँ शाम सजने लगी

दिल पे आने लगीं दिलनशीं आहटें

अब ख़ुशी ग़म के दर पे ठिटकने लगी

लौट आए वो दिन फिर से देखो 'अमीर' 

उम्र अपनी लड़कपन सी दिखने लगी

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by सालिक गणवीर on September 8, 2020 at 10:22pm

अमीरूद्दीन साहिब

किसी शब्द के मूल रूप का अंतिम व्यंजन हर्फ़-ए-रवी होता है.यथा चलना चल + ना में ' हर्फे-रवी है (मूल शब्द चल का आखिरी अक्षर)

आप कह रहे है ए है .जनाब मेरी जानकारी के मुताबिक आपके मतले के ऊला में ठ और सानी में ढा है. उस्ताद जी की इस्लाह का मैं भी मुंतज़िर हूँ. हुजूर अन्यथा न लें.

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 8, 2020 at 10:09pm

मुहतरम उस्ताद समर कबीर साहिब, आपकी ज़र्रा-नवाज़ी का शुक्रगुजा़र हूँ जो मुझ अहक़र को अपने बेशकी़मती वक़्त में से इतना वक़्त इनायत फ़रमाया। हुज़ूर मेरे नाक़िस इल्म के मुताबिक़ इस ग़ज़ल में हर्फ़-ए-रवी "न" (ن) है। सादर। 

Comment by Samar kabeer on September 8, 2020 at 8:02pm

मुहतरम, अब भी क़वाफ़ी दुरुस्त नहीं हुए ।

हर्फ़-ए-रवी नहीं है इनमें, ग़ौर करें ।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 8, 2020 at 4:41pm

आदरणीय जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और तनक़ीद के लिये बेहद शुक्रिया जनाब। आपने सहीह फ़रमाया एक ग़लती की वजह से ग़ज़ल में जो कई खा़मियांँ नमुदार हो गईं थीं जो सभी एक दुरुुस्तगी से शायद दूर भी हो गईं हैं,

फिर भी सभी गुणीजनों से आलोचना आमंत्रित हैं जिसके लिए मैं आप सभी का हार्दिक आभारी रहूँगा। सादर। 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 8, 2020 at 4:37pm

आदरणीय जनाब चेतन प्रकाश जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सृजन के भावों को मान देने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार। 

Comment by Chetan Prakash on September 8, 2020 at 9:06am

 'अमीर' साहब ग़जल सम्पादन की मुन्तज़िर हैः रोज़ उठने लगी लगी देखो काली घटा । बाकी तो मोहतरम कबीर समीर साहब, बतला ही चुके है। फिर भी कहन दिल को छू गया, भाव के स्तर पर आप बधाई के पात्र हैं।

Comment by सालिक गणवीर on September 7, 2020 at 11:41pm

आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर 'साहिब

आदाब

जैसा कि उस्ताद-ए-मुहतरम ने कहा है आपके मतले में ही क़ाफ़िया दोष है आदरणीय.

उठने में मूल शब्द उठ है और गिरने में गिर ,इसमें तुकबंदी नहीं है. आपने मक़्ते में भी खटखटाने  क़ाफ़िया का इस्तेमाल किया है जो दोषपूर्ण है. गुस्ताखी मुआफ़.

Comment by Samar kabeer on September 7, 2020 at 7:57pm

जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब, आपकी ग़ज़ल के क़वाफ़ी दुरुस्त नहीं हैं, देखियेगा ।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 6, 2020 at 3:33pm

मुहतरमा डिम्पल शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद, दाद और मुबारकबाद के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। सादर।

Comment by Dimple Sharma on September 6, 2020 at 2:54pm

आदरणीय अमीरुद्दीन अमीर साहब आदाब,ग़ज़ल का हर शेर कमाल हुआ है आदरणीय बधाई स्वीकार करें।

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