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कैसी ये बदहाली है ,
हर इंसान सवाली है ।

सूखे-सूखे होंठ सभी ,
उस चहरे पे लाली है ।

कौन ग़मों से बच पाया ,
सबने पीड़ा पाली है ।

जब से कूच कर गई माँ ,
घर भी खाली-खाली है ।

सब समझे हैं सभ्य उसे ,
गुंडा और मवाली है ।

ख़ुशियाँ रूठी बैठी है ,
ग़ुर्बत में दीवाली है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on September 6, 2017 at 11:55am
आदरणीय महेंद्र कुमार जी ग़ज़ल की सराहना और सुझाव का शुक्रिया ।
Comment by vijay nikore on September 6, 2017 at 1:23am

//कौन ग़मों से बच पाया ,
सबने पीड़ा पाली है //

बहुत खूब ! अच्छी गज़ल कही है.... दिल से बधाई, भाई मोहम्मद आरिफ़ जी।

Comment by Mahendra Kumar on September 5, 2017 at 3:48pm

आ. मोहम्मद आरिफ़ जी, आदाब. बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है. दिल से ढेर सारी बधाई स्वीकार कीजिए. 

//उस चहरे पे लाली है ।// क्या इस मिसरे को यूँ किया जा सकता है : "पर चहरे पे लाली है।" देख लीजिएगा. सादर.

Comment by Mohammed Arif on September 5, 2017 at 11:19am
जी, यह सर्वविदित है ।
Comment by Gurpreet Singh jammu on September 5, 2017 at 10:55am

जी आरिफ साहब,,  कुछ दिन तो पंजाब, हरयाणा में इंटरनेट सुविधा बंद होने के कारण और फिर कुछ अन्नय  व्यस्तताओं के चलते मंच पर उपस्थित नहीं हो पाया 

Comment by Mohammed Arif on September 5, 2017 at 10:50am
बहुत-बहुत आभार आदरणीय गुरप्रीत जी । बहुत दिनों के बाद मंच पर आना हुआ ।
Comment by Gurpreet Singh jammu on September 5, 2017 at 10:47am

उम्दा ग़ज़ल हुई है आदणीय मोहम्मद आरिफ जी,,, बधाई स्वीकार करें 

Comment by Mohammed Arif on September 4, 2017 at 8:23am
आदरणीय गजेंद्र जी ग़ज़ल पर प्रतिक्रिया, हौसला अफ़ज़ाई और सलाह का बहुत-बहुत शुक्रिया ।
Comment by Gajendra shrotriya on September 3, 2017 at 10:47pm
सभी अशआर अच्छे हुए हैं जनाब मो० आरिफ साहब। मुबारकबाद पेश करता हूँ।
//जब से कूच कर गई माँ//
इस मिसरे को और बेहतर किया जा सकता है। यहाँ कूच कर गई के स्थान पर रुख्सत,विदा या अन्य कोई प्रभावी शब्द लिया जा सकता है।
बहुत शुभकामनाएँ आपको।
Comment by Mohammed Arif on September 3, 2017 at 10:23pm
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय तस्दीक़ अहमद जी । लेखन सार्थक हो गया ।

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