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नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम (ग़ज़ल)

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

 

नमक में हींग में हल्दी में आ गई हो तुम

उदर की राह से धमनी में आ गई हो तुम

 

मेरे दिमाग से दिल में उतर तो आई हो

महल को छोड़ के झुग्गी में आ गई हो तुम

 

ज़रा सी पी के ही तन मन नशे में झूम उठा

कसम से आज तो पानी में आ गई हो तुम

 

हरे पहाड़, ढलानें, ये घाटियाँ गहरी

लगा शिफॉन की साड़ी में आ गई हो तुम

 

बदन पिघल के मेरा बह रहा सनम ऐसे

ज्यूँ अब के बार की गर्मी में आ गई हो तुम

 

चमक वही, वो गरजना, तुरंत ही बारिश

खफ़ा हुई तो ज्यूँ बदली में आ गई हो तुम

------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 9, 2016 at 10:57am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय जयनित जी। सुधार कर दिया है। विचार करने के बाद लगा कि आप लोग सही कह रहे हैं।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 9, 2016 at 10:55am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय राहुल जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 9, 2016 at 10:54am

बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा Rahila जी

Comment by जयनित कुमार मेहता on March 7, 2016 at 10:52pm
आदरणीय धर्मेन्द्र जी,
बहुत ही असरदार ग़ज़ल कही आपने।
समर कबीर साहब की बात गौर करने लायक है, और उनके सुझाव अनुसार भी आपका मिसरा बह्र में ही रहेगा और शब्द का रूप भी विकृत नहीं होगा।।
क्योंकि, अंत में "22" रुक्न वाले बहरों में 22 को 112 लेने की छूट होती है, ये आपको ज्ञात होगा।।
सादर।।
Comment by Rahul Dangi Panchal on March 7, 2016 at 7:11pm
वाकई सुन्दर ग़ज़ल हुई बधाई
Comment by Rahila on March 7, 2016 at 3:29pm
आदरणीय धर्मेंद्र भाई! बहुत जानकार नहीं हूं ग़ज़ल के बारे में लेकिन आपकी ग़ज़ल आकर्षित कर गयी । बहुत बधाई । वरिष्ठ सुधिजनों की राय पर गौर करियेगा । सादर
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 7, 2016 at 11:41am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुनील जी

Comment by shree suneel on March 7, 2016 at 11:26am
हरे पहाड़, ढलानें, ये घाटियाँ गहरी
लगा शिफॉन की साड़ी में आ गई हो तुम... व्वाहह! बहुत ख़ूब!
आदरणीय धर्मेंद्र जी, अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत की है अापने. कई अशआर ख़ूबसूरत हुए हैं. मतले का उला भी ख़ूब ..
लेकिन एक बार फिर से वो शे'र जिसपे मुग्ध हूँ..
हरे पहाड़, ढलानें, ये घाटियाँ गहरी
लगा शिफॉन की साड़ी में आ गई हो तुम... क्या बात है! हार्दिक बधाई आपको. सादर.
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 6, 2016 at 9:14pm

जनाब समर साहब, आप तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ। ग़लतियों की तरफ़ इशारा करने के लिए भी आपका शुक्रिया अदा करता हूँ।

आख़िरी शे’र का ऊला मैं सही कर रहा हूँ।

तीसरे शे’र के ऊला में जो मज़ा "झूमुट्ठा" पढ़ने में है वो "झूम उठा" पढ़ने में नहीं है इसलिए यहाँ "झूमुट्ठा" जानबूझकर रखा गया है। 

एक बार फिर तह-ए-दिल से शुक्रिया।

Comment by Samar kabeer on March 6, 2016 at 2:42pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार जी आदाब,बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही आपने,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
तीसरे शैर के ऊला मिसरे में "उट्ठा"को "उठा"कर लें,
आख़री शैर का ऊला मिसरा लय में नहीं लग रहा,देख लिजियेग ।

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