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सच की कमज़ोर आवाज़ (लघुकथा)

एक दिन सच और झूठ एक दूसरे से मिले, दोनों ने सोचा हमें एक जैसा दिखना चाहिये, ताकि लोग खुद ही अपने विवेक से सच और झूठ को पहचान सकें|

और उन्होंने एक जैसे कपड़े पहने और एक जैसे मुखौटे चेहरे पर लगा दिये फिर एक दूसरे का हाथ पकड़ कर वादा किया कि किसी को अपना चेहरा उजागर नहीं करेंगे|

उसके बाद आज तक झूठ की मधुर आवाज़ के कारण कई लोग झूठ को ही सच समझते हैं और सच अपने वादे के कारण खुद को दिखा तो नहीं सकता, लेकिन वो यही कहता है कि, "झूठ का चेहरा नहीं उसके कालिख लगे हाथ देखो"|

हालाँकि अधिकतर बार उसकी धीमी आवाज़ कानों तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती है|

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by kanta roy on December 22, 2015 at 1:07pm

झूठ और सच का खेल और मेल बड़ा ही निराला है ,आज के दौर में सच और  ईमानदारी काम कर-कर के ठठरी पर कासी जाती है चिता में जलने के लिए ,झूठ अपने सिरमोर ले झूमता रहता है। चंद पंक्तियों  में बहुत बड़ा नेपथ्य को रोपित किया है आपने आदरणीय चंद्रेश जी। इस   मन को उद्वेलित करने वाली लघुता के लिए ढेरों बधाई।   

Comment by Nita Kasar on December 20, 2015 at 9:12pm
सारगर्भित कथा के लिये बधाई आद०चन्द्रेश छतलानी जी ।झूठ जितना चीख़ चीख़ कर अपने को साबित करता है तब वह सच का चोला पहन लेता है क्योंकि विवेक मर चुका होता है ।
Comment by Janki wahie on December 20, 2015 at 6:34am
एक और उत्कृष्ट रचना ।।अपने बेहतरीन कलेवर के साथ। बधाई चन्द्रेश भाई जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 20, 2015 at 12:14am
//"झूठ का चेहरा नहीं उसके कालिख लगे हाथ देखो"|// -- बहुत ही गूढ़ बात सहज रूप में दो बिम्बों के माध्यम से पाठकों तक पहुंचायी हैं। बेहतरीन तर्कसंगत कथानक, व कथ्य प्रस्तुतिकरण हेतु तहे दिल बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय चन्द्रेश कुमार छतलानी जी।

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